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काल में इस मान्यता का अस्तित्व था ।४५ वैदिक असुरादि :
सामान्यतः देवों और मनुष्यों के शत्रुओं को वेद में असुर, राक्षस, पिशाच आदि नाम-से प्रतिपादित किया गया है । पणि और वृत्र इन्द्र के शत्रु थे, दास और दस्यु आर्य प्रजा के शत्रु थे । किन्तु दस्यु शब्द का प्रयोग अन्तरिक्ष के दैत्यों अथवा असुरों के अर्थ में भी किया गया है और दस्युओं को वृत्र के नाम से भी वर्णित किया गया है । वृत्र, पणि, असुर, दस्यु, दास, नाम की कई जातियाँ थीं । उन्हें ही कालान्तर में राक्षस, दैत्य, असुर, पिशाच का रूप दिया गया । वैदिक काल के लोग उनके नाश के निमित्त देवों से प्रार्थना किया करते थे । वैदिक देव और देवियाँ :
वेदों में वर्णित अधिकतर देवों की कल्पना प्राकृतिक वस्तुओं के आधार पर की गई है ।४६ प्रारम्भ में अग्नि जैसे प्राकृतिक पदार्थों को ही देव माना गया था, किन्तु धीरे-धीरे अग्नि आदि तत्त्व से पृथक् अग्नि आदि देवों की कल्पना की गई । कुछ ऐसे भी देव हैं, जिनका प्रकृतिगत किसी वस्तु से सरलता-पूर्वक संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता, जैसे कि वरूण आदि । कुछ देवताओं का संबंध क्रिया से है, जैसे कि त्वष्टा, धाता, विधातादि । देवों के विशेषण-रूप में जो शब्द लिखे गए, उनके आधार पर उन नामों के स्वतंत्र देवों की भी कल्पना की गई, जैसे कि विश्वकर्मा इन्द्र का विशेषण था, किन्तु इस नाम का स्वतन्त्र देव भी माना गया । यही बात प्रजापति के विषय में हुई । इसके अतिरिक्त मनुष्य के भावों पर देवत्व का आरोप करके भी कुछ देवों की कल्पना की गई है, जैसे कि मन्यु, श्रद्धा आदि । इस लोक के कुछ मनुष्य, पशु और जड़ पदार्थ भी देव माने गए है, जैसे कि मनुष्यों में प्राचीन ऋषियों में से मनु, अथर्वा, दध्यच, अत्रि, कण्व, वत्स और काव्य उषणा । पशुओं में दधिक्रां सदृश घोड़े में दैवी भाव माना गया है । जड़-पदार्थों में पर्वत, नदी जैसे पदार्थों को देव कहा गया
देवों की पत्नियों की भी कल्पना की गई है जैसे कि इन्द्राणी आदि । कुछ स्वतंत्र देवियाँ भी मानी गई हैं, जैसे कि उषा, पृथ्वी, सरस्वती, रात्रि, वाक्, अदिति आदि ।
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