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१. भारतवर्ष, २. किम्पुरुष, ३. हरिवर्ष, ४. इलावृत्त, ५. रम्यक ६. हिरण्यमय ७. और उत्तरकूरु' । इनमें इलावृत को छोड़कर शेष ६ का विस्तार उत्तर - दक्षिण में नौ-नौ हजार योजन है । इलावृत वर्ष मेरू के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चारों ही दिशाओं में नौ-नौ हजार योजन विस्तृत है । इस प्रकार सर्व पर्वतों वर्षो के विस्तार को मिलाने पर जम्बूद्वीप का विस्तार १ लाख योजन प्रमाण हो जाता है । यह जैन मान्यता के समान है ।
इस द्वीप को सब और से घेरकर मधुरोदक समुद्र अवस्थित है । इससे आगे प्राणियों का निवास नहीं है । मधुरोदक समुद्र से आगे उससे दूने विस्तार वाली स्वर्णमयी भूमि है। उसके आगे १० हजार योजन विस्तृत और इतना ही ऊँचा, लोकालोक पर्वत है । उसको चारों और से वेष्टित तमस्तम स्थित है । इस अण्डकटाह के साथ उपर्युक्त द्वीप-समूहों वाला यह समस्त भूमण्डल ५० करोड़ योजन विस्तार वाला है और इसकी ऊँचाई ७० हजार योजन है ।
इस भूमण्डल के नीचे दस-दस हजार योजन के ७ पाताल हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं- अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत, महातल, सुतल और पाताल । ये क्रमशः शुक्ल, कृष्ण, अरूण, पीत, शर्करा, शैल और काञ्चन स्वरूप हैं । यहाँ उत्तम भवनों से युक्त भूमियां हैं और यहाँ दानव, दैत्य, यक्ष, एवं नाग आदि निवास करते हैं । ४
पातालों के नीचे विष्णु भगवान का शेष नामक तामस शरीर स्थित है जो अनन्त कहलाता है । यह शरीर सहस्त्र फणों से संयुक्त होकर समस्त भूमण्डल को धारण करके पाताल - मूल में अवस्थित है । कल्पान्त के समय इसके मुख से निकली हुई संकर्षात्मक, रूद्र, विषाग्नि- शिखा तीनों लोकों का भक्षण करती है ।
नरक - लोक
पृथ्वी और जल के नीचे रौरव, सूकर, रौध, ताल, विशासन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विलोहित, रुधिर, वैतरणी, कृमीश, कृमि-भोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, अलाभक्ष, दारूण, पूयवह वह्नि - ज्वाल, अधः शिरा, सैदेस, कालसूत्र, तम, आवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ण और अग्रवि इत्यादि नाम वाले अनेक महान भयानक नरक हैं । इनमें पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं। वे वहाँ से निकल कर क्रमश:
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