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है । इसमें कमल बिस (कमलकंद) शतपत्र आदि सुंगधित पुष्पो से सुशोभित हैं । उसमें पराग कण के लिए भ्रमर के समूह गुंजन करते रहते हैं । अनेक पशुपक्षी के समूहों के गमनागमन से सदा व्याप्त रहती है ।
सभी जलाशय एक-एक पद्मवरवेदिका और एक-एक वनखंड से घिरे
इन जलाशयों में से किसी-किसी में, आसव, वारूणोदक (वारूण समुद्र के जल) क्षीरोदक, घी इक्षुरस और किसी में प्राकृतिक स्वाभाविक पानी जैसा पानी भरा है ।
प्रत्येक वापिकाओं यावत् कूपपंक्तियों की चारो दिशाओं में तीन-तीन सुंदर सोपान तोरणो, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों की तरह वर्णन समझना । इन छोटीछोटी वापिकाओं और कूपपंक्तियों के मध्यवर्ती प्रदेशो में बहुत से उत्पात पर्वत, नियतिपर्वत, जगतीपर्वत, दारूपर्वत तथा कितने ही ऊँचे-नीचे, छोटे-बडे दकमंडप, दकमंच, दकमालक, दकप्रासाद बने हुए हैं। ये सभी पवर्त सर्वरत्नमय रूप से शोभायमान हैं ।
वापिकाओं आदि के अन्तरालवर्ती स्थानों में आये हुए पर्वतों का वर्णन निम्न प्रकार से
१) उत्पात पर्वत :- ऐसे पर्वत जहाँ सूर्याभ-विमानवासी देव-देवियाँ विविध प्रकार की चित्र-विचित्र क्रीडाओं के निमित्त अपने-अपने उत्तर वैक्रिय शरीरों की रचना करते हैं।
२) नियतिपर्वत :- इन पर्वतों पर सूर्याभ-विमानवासी देव-देवियाँ अपनेअपने भवधारणीय (मूल) वैक्रिय शरीरों से क्रीडारत रहते हैं ।
३) जगतीपर्वत :- इन पर्वतों का आकार कोट-परकोट जैसा होता है ।
४) दारूपर्वत :- दारू अर्थात् काष्ठ-लकडी । लकड़ी से बने पर्वत जैसे आकार वाले कृत्रिम पर्वत ।।
५) दकमंडप :- स्फटिक मणियों से निर्मित मंडप अथवा ऐसे मंडप जिनमें फुव्वारों द्वारा कृत्रिम वर्षा की रिमझिम-रिमझिम फुहारें बरसती रहती हैं ।
६) दकमालक :- स्फटिक मणियों से बने हुए घर के ऊपरी भाग में हुए कमरे-मालिये ।१७०
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