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सातवीं पृथ्वी में पाँच अनुत्तर बड़े से बड़े महानरक कहे गये हैं, यथाकाल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । वहाँ जो सर्वोत्कृष्ट हिंसादि पाप कर्मों को करते है वे मृत्यु के समय मर कर अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होते हैं । उदाहरण के रूप में यहाँ पाँच महापुरुषों का उल्लेख किया गया है जो अत्यन्त उत्कृष्ट स्थिति के और उत्कृष्ट अनुभाग का बंध कराने वाले क्रूर कर्मों को बाँधकर सप्तमपृथ्वी के प्रतिष्ठान नरकावास में उत्पन्न हुए हैं । वे
१. जमदग्नि का पुत्र परशुराम, २. लच्छति पुत्र दृढायु (टीकाकार के अनुसार छातीसुत दाढापाल) ३. उपरिचर वसुराजा ४. कोरव्य गोत्रवाला अष्टम चक्रवर्ती सुभूम और ५. चुलनीसुत ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ।
ऐसा कहा जाता है कि परशुराम ने २१ बार क्षत्रियों का नाश करके क्षत्रियहीन पृथ्वी कर दी थी । सुभूम आठवा चक्रवर्ती हुआ, इसने सात बार पृथ्वी को ब्राह्मणरहीत किया। एसी किंवदन्ती है । तीव्र, क्रूर, अध्यवसायों से ही ऐसा हो सकता है । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अत्यन्त भोगासक्त या तथा उसके अध्यवसाय अत्यन्त क्रूर थे । वसु राजा उपरिचर के विषय में प्रसिद्ध है कि वह बहुत सत्यवादी था और इस कारण देवताधिष्ठित स्फटिक सिंहासन पर बैठा हुआ भी वह स्फटिक सिंहासन जनता को दृष्टिगोचर न होने से ऐसी बात फैल गई थी कि राजा प्राण जाने पर भी असत्य भाषण नहीं करता, इसके प्रताप से वह भूमि से ऊपर उठकर अधर स्थित होता है । एक बार पर्वत और नारद में वेद में आये हुए 'अज' शब्द के विषय में विवाद हुआ । पर्वत अज का अर्थ बकरा करता था और उससे यज्ञ करने का हिंसामय प्रतिपादन करता था । जबकि सम्यगदृष्टि नारद 'अज' का अर्थ 'न उगने वाला धान्य' करता था । दोनों न्याय के लिए वसु राजा के पास आये । किन्हीं कारणों से वसु राजाने पर्वत का पक्ष लिया, हिंसामय यज्ञ को प्रोत्साहित किया । इस झूठ के कारण देवता कुपित हुआ
और उसे चपेटा मार कर सिंहासन से गिरा दिया । वह रौद्रध्यान और क्रूर परिणामों से मरकर सप्तम पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में उत्पन्न हुआ ।
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