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में ही पूरा करता है । उनको सुख का लेशमात्र भी नहीं है ।१०३
इन सब यातनाओं जन्य वेदना को देखते हुए ऐसा लगता है कि जहाँ मात्र दुःखों का ही साम्राज्य हो, वह है नरक ।
१३. नारकों के दुःखों में अपवाद प्रायः सर्वत्र प्रत्येक कार्य में कुछ न कुछ अपवाद भी दृष्टिगोचर होता ही है । इसी प्रकार यहाँ नारकियों को सदा दुःख ही दुःख होता है, परंतु उसका थोडा सा अपवाद भी है । वह निम्न प्रकार से
उपपात-कोई नारक जीव उपपात के समय में साता की वेदना भी करता है । जो पूर्व के भव में दाह या छेद आदि के बिना सहज रूप में मृत्यु को प्राप्त हुआ हो वह अधित संक्लिष्ट परिणाम वाला नहीं होता है । उस समय उसके न तो पूर्वभव में बांधा हुआ आधिरूप (मानसिक) दुःख है और न क्षेत्रस्वभाव से होने वाली पीड़ा है और न परमाधामी कृत या परस्परोदीरित वेदना ही है । इस स्थिति में दुःख का अभाव होने से कोई जीव साता की वेदना करता है ।
देवप्रभाव से-कोई जीव के प्रभाव से थोडे समय के लिए साता का वेदन करता है । जैसे कृष्ण वासुदेव की वेदना के उपशम के लिए बलदेव नरक में गये थे । इसी प्रकार पूर्वसांगतिक देव के प्रभाव से थोड़े समय के लिए नैरयिकों को साता का अनुभव होता है। उसके बाद तो नियत से क्षेत्रस्वभाव से होने वाली या अन्य अन्य वेदनाएं उन्हें होती ही हैं ।
अध्यवसाय से-कोई नैरयिक सम्यक्त्व उत्पत्ति के काल में अथवा उसके बाद भी कदाचित् तथाविध विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से बाह्य, क्षेत्रज आदि वेदनाओं के होते हुए भी साता का अनुभव करता है । आगम में कहा है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय जीव को वैसा ही प्रमोद होता है जैसे किसी जन्मान्ध को नेत्रलाभ होने से होता है । इसके बाद भी तीर्थंकरो के गुणानुमोदन आदि विशिष्ट भावना भाते हुए बाह्य क्षेत्रज वेदना के सहभाव में भी वे सातोदय का अनुभव करते हैं ।१०४
कर्मानभव से-तीर्थंकरो के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक आदि बाह्य निमित्त को लेकर तथा तथाविध साता वेदनीयकर्म के विपाकोदय के निमित्त से नैरयिक जीव क्षणभर के लिए साता का अनुभव करते हैं ।१०५
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