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नैरयिक जीव कुंभियों में पकाये जाने पर तथा भाले आदि से भेद्यमान होने पर भय से त्रस्त होकर छटपटाते हुए पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं । जघन्य से एक कोस और उत्कर्ष से पाँच सौ योजन उछलते हैं । ऐसा भी कहीं कहीं उल्लेख प्राप्त होता है ।०६
इस प्रकार नैरयिक जीवों को, जो रात-दिन नरकों में पचते रहते हैं, उन्हें आँख मूंदने जितने काल के लिए (निमेषमात्र के लिए) भी सुख नहीं है । वहाँ सदा दुःख ही दुःख है, निरन्तर दुःख है नारकों की मृत्यु
अंत समय में नैरयिकों के वैक्रिय शरीर के पुद्गल उन जीवों द्वारा शरीर छोड़ते ही हजारों खण्डों में छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाते हैं ।१०७ इस प्रकार बिखरने वाले अन्य शरीरों का कथन भी प्रसंग से कर दिया है । तैजस, कार्मण शरीर, सूक्ष्म शरीर अर्थात् सूक्ष्म नामकर्म के उदयवाले पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों के शरीर, औदारिक शरीर, वैक्रिय और आहारक शरीर भी चर्मचक्षुओं द्वारा ग्राह्य न होने से सूक्ष्म हैं तथा अपर्याप्त जीवों के शरीर जीवों द्वारा छोड़े जाते ही बिखर जाते हैं । उनके परमाणुओं का संघात छिन्न-भिन्न हो जाता है ।१०८
उन नारक जीवों को नरकों में अति शीत, अति उष्णता, अति तृषा, अति भूख अति भय आदि सैकड़ों प्रकार के दुःख निरन्तर होते रहते हैं ।१०९
इस प्रकार नैरयिकों में विकुर्वणा का अवस्थानकाल, अनिष्ट पुद्गलों का परिणमन, अशुभ विकुर्वणा, नित्य असाता, उपपात काल में क्षणिक साता, ऊपर छटपटाते हुए उछलना, अक्षिनिमेष के लिए भी साता न होना, वैक्रियशरीर का बिखरना तथा नारकों को होने वाली सैकड़ों प्रकार की वेदनाओं होती है ।
टिप्पण :१. स्थानांग ५ अ, पृ. २८७ से २८८, सूत्रकृतांग १/५/११ नरकविभक्ति । २. जीवाजीवाभिगम खं.१, पृ. ७६ विवेचन, प्रज्ञापना १ अध्याय में पृ. ७३ नं. ३. सूत्रकृतांग २ श्रू. ९अ० ४. प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति पत्रांक ४३ ५. जैनेन्द्र कोष भा. २ पृ. ५६९
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