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है । नारकों के मन पर इन यातनाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है, जो आँखो से
आँसुओ के रूप में और वाणी से रूदन विलाप और रक्षा के लिए पुकार के रूप में प्रकट होता है । नारकों को ये सब यातनाएँ और भयंकर वेदनाएँ उनके पूर्वजन्म में किये हुए पापकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं, इसलिए नरकों को यातना-स्थान कहना योग्य ही है ।
१०. एक-अनेक-शस्त्रविकुर्वणा वेदना (विक्रिया द्वारा)
रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक शस्त्र आदि का एक रूप भी बना सकते हैं और बहुत रूप भी बना सकते हैं । एक रूप बनाते हुए वे एक मुद्गर रूप बनाने में समर्थ हैं, इसी प्रकार एक भुसंडी (शस्त्रविशेष), करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, बाण, भाला, तोमर, शूल, लकुट (लाठी) और भिण्डमाल (शस्त्रविशेष) बनाते हैं और बहुत रूप बनाते हुए बहुत से मुद्गर भुसंडी यावत् भिण्डमाल बनाते हैं । इन बहुत शस्त्र रूपों की विकुर्वणा करते हुए वे संख्यात शस्त्रों की ही विकुर्वणा कर सकते हैं, असंख्यात की नहीं । अपने शरीर से सम्बद्ध की विकुर्वणा कर सकते हैं, असम्बद्ध की नहीं, सदृश की रचना कर सकते हैं, असदृश की नहीं । इन विविध शस्त्रों की रचना करके वे एक दूसरे नैरयिक पर प्रहार करके वेदना उत्पन्न करते हैं । वह वेदना उज्ज्वल अर्थात् लेशमात्र भी सुख न होने से जाज्वल्यमान होती है-उन्हें जलाती है, वह विपुल है-सकल शरीरव्यापी होने से विस्तीर्ण है। वह वेदना प्रगाढ है-मर्मदेशव्यापी होने से अतिगाढ होती है । वह कर्कश होती है (जैसे पाषाणखंड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड़ देता है, उसी तरह से वह वेदना आत्मप्रदेशों को तोड़सी देती है। वह कटुक औषधिपान की तरह कड़वी होती है, वह परुष-कठोर (मन में रूक्षता पैदा करने वाली) होती है, निष्ठुर होती है, (अशक्य प्रतीकार होने से दुर्भेद्य) होती है, चण्ड होती है, (रौद्र अध्यवसाय का कारण होने से) वह तीव्र होती है, (अत्यधिक होने से) वह दुःखरूप होती है, वह दुर्लघ्य और दुःसह्य होती है । इस प्रकार धूमप्रभापृथ्वी (पांचवी नरक) तक वेदना होती है ।
वे परस्पर में तीव्र वेदना देते हैं इसलिए "परस्परोदीरित दुःखको वेदना वाले हैं ।९५ इस विक्रिया द्वारा दूसरों को उज्जवल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, परूष, निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुःखरूप दुर्लघ्य और दुःसह्य वेदना देते हैं । यह विकुँवणा रूप वेदना पाँचवी नरक तक होती है ।
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