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हैं । ये सभी पृथ्वी शिलापट्टक चर्मनिर्मित वस्त्र अथवा मृगछाला, रूई, बूर, नवनीत, तूल, सेमल या आक की रूई के स्पर्श जैसे सुकोमल, कमनीय, सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् रमणीय हैं ।
__इन हंसासनों आदि पर बहुत अतीव से सूर्याभविमानवासी देव और देवियाँ सुखपूर्वक बैठते हैं, सोते हैं, शरीर को लम्बा कर लेटते हैं, विश्राम करते हैं, ठहरते हैं, करवट लेते हैं, रमण करते हैं, केलिक्रीडा करते हैं, इच्छानुसार भोग-विलास करते हैं, मनोविनोद करते हैं, रासलीला करते हैं और रतिक्रीडा करते हैं । इस प्रकार वे अपने-अपने सुपुरुषार्थ से पूर्वोपार्जित शुभ, कल्याणमय, शुभफलप्रद, मंगलरूप पुण्य कर्मों के कल्याणरूप फलविपाक का अनुभव करते समय बिताते हैं ।७३
वनखण्डवर्ती प्रासादावतंसक वनखण्डों के मध्यातिमध्य भाग में एक-एक प्रासादावतंसक (प्रासादों के शिरोभूषण रूप श्रेण्ठ प्रासाद) है । ये प्रासादावतंसक पाँच सौ योजन ऊँचे और अठाई सौ योजन चौड़े हैं और अपनी उज्जवल प्रभा से हँसते हुए से प्रतीत होते हैं । इसका भूमिभाग अति रमणीय है । इनके चंदेवा, सामानिक आदि देवों के भद्रासनों सहित सिंहासन आदि का वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए ।
इन प्रासादावतंसको मे महान ऋद्धिशाली यावत् विचरण करते हैं । एक पल्योपम की स्थिति वाले चार देव निवास करते हैं । उनके नाम हैं-अशोकदेव, सप्तपर्णदेव, चंपकदेव और आम्रदेव ।
ये चारों देव अपने-अपने नाम वाले वनखंड के स्वामी हैं तथा सूर्याभ देव के सदृश महान् ऋद्धिसम्पन्न हैं एवं अपने अपने सामानिक देवों, सपरिवार अग्रमहिषयों, तीन परिषदाओं, सप्त अनीकों-सेनाओं और सेनापतियों, आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य, स्वामित्व आदि करते हुए नृत्य गीत, नाटक और वाचघोषों के साथ विपुल भोगोपभोगों का भोग करते हुए रहते हैं ।१७४
मुख्य प्रासादावतंसक का वर्णन मुख्य प्रासादावतंसक एक सौ पच्चीस योजन ऊँचे और साढ़े बासठ योजन चौड़ा है । यह प्रधान प्रासाद अपनी आस-पास की रचना के बीचों-बीच है और चारों दिशाओं में बने अन्य चार प्रासादों की अपेक्षा सबसे अधिक ऊँचा और लम्बा-चौड़ा
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