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१९७ संक्षेप वर्णन पहले प्रकरण में देखा । अब उसी का विस्तार इस 'नरक' के प्रकरण में देंखे ।
नरक सुयगडो के पाँचवे अध्ययन का नाम 'नरक-विभक्ति'-नरकवास का विभाग है । चूर्णिकार ने 'नरक' का निरूक्त इस प्रकार दिया है
__'नीयन्ते तस्मिन् पापकर्माणि इति नरकाः' ।
_ 'न रमन्ति तस्मिन् इति नरकाः ।' नरक का पर्यायवाची 'निरय' शब्द है जिसका अर्थ होता हैसातावेदनीयादि शुभ या इष्टफल जिस में से निकल गए हैं, वह निरय है । अर्थात् नरकावास है । उनमें उत्पन्न होने वाले जीव नैरयिक हैं । नरकगति का सामान्य निर्देश :
पापकर्मियों का यातना स्थान नरक है ।
वहाँ के जीव नारक कहलाते हैं और नरक उनका स्थान है । नरक नामक स्थान के सम्बन्ध से ही वे जीव नारक या नैरयिक कहलाते हैं । 'नैरयिक' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ :
नि+अय का अर्थ है- अय अर्थात् इष्टफल देने वाला (शुभ कर्म) । निर् अर्थात् निर्गत हो गया है-निकल गया हो । जहाँ इष्टफल की प्राप्ति न होती है, वह है निरय । निरय में उत्पन्न होने वाले जीव नैरयिक कहलाते हैं । ये नैरयिक जीव संसारसमापन्न अर्थात्-जन्ममरण को प्राप्त करते रहते हैं तथा पाँचो इन्द्रियों से युक्त होते हैं ।
इसी प्रकार प्रचुररूप से महापाप कर्मों के फलस्वरूप अनेकों प्रकार के असह्य दुःखों को भोगनेवाले जीव विशेष नारकी कहलाते हैं । उनकी गति को नरक गति कहते है, और उनके रहने के स्थान को 'नरक' कहते हैं ।
साथ ही वह अति शीत, अति उष्ण, अति दुर्गन्ध, अति अंधकार आदि असंख्य दुःखों की तीव्रता का केन्द्र होता है । वहाँ पर जीव बिलों अर्थात् सुरंगो में उत्पन्न होते हैं और परस्पर में एक दूसरे को मारने-काटने आदि के द्वारा दुःख भोगते रहते हैं ।
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