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२३५ पडे हैं । ऐसी सम्यक् विचारणा से वे पर उदीरित वेदना, दुःखों को सम्यक् प्रकार से सहन करते हैं । स्वयं पाप के फलरूप विपाक को अनुभव करने से दूसरों को भी दुःख नहीं देते । वास्तविक में ये जीव मिथ्यादृष्टि नारको से कम दुःखी होते है, और कर्म भी कम बांधते हैं ।
ऐसे अनेक कारणों से वे परस्पर दुःख को उदीरित करते हैं । ३. परमाधामी कृत वेदना :
नैरयिक की वेदना तीन प्रकार की है- क्षेत्रकृत, परस्पर, उदीरित और परमाधामी कृत ।५ इस से पूर्व दो वेदना का उल्लेख किया जा चुका है। पहले दो प्रकार के दुःख तो रत्नप्रभादि सातों भूमिओं में साधारण हैं । परंतु इस वेदना का संबंध सिर्फ तीन नरक भूमि के साथ हैं । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा इन प्रथम तीन नरक में ही तीन प्रकार की वेदना कही हैं । क्योंकि परमाधामी देवों का क्षेत्र इतनी हद तक ही होता हैं ।
संक्लेश रूप स्वभाववाले ये परमाधामी असुर देव-नारकियों को वेदनाओं की अच्छी तरह उदीरणा करते हैं, और कराते हैं, अर्थात् वे परस्पर नारकियों को लड़ाते रहते हैं, और उनको भयंकर दुःख, त्रास देते हैं ।
उनकी दुःख देने की पद्धति विविध प्रकार की है, जैसे- नारकों को तपे हुऐ लोहे का रस पिलाना । - बहुत तपे हुए लोहे के खंभे के साथ चिपकाना । - कांटेवाले भयंकर झाड़ के उपर नारकों को चढ़ाना और उतारना । - नारकों के मस्तक पर लोहे के डंडे का प्रहार करना । - चाकू और तलवार से उनका शरीर छिलना । - खारवाला धगधगता तेल शरीर पर डालना । - लोहे की कुंभी में उनके शरीर को पकाना । - घाणी में डालकर पीलना और अंगारो में सेकना । - नैरयिको से वाहन खिंचवाना और परस्पर लड़ाना । - धगधगती सूकी रेती में दौडाना । - लोही, पिब, मडदा आदि से भरी हुई वैतरणा नदी की विकुवर्णा करके उसमें
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