Book Title: Jain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Author(s): Hemrekhashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 262
________________ २३९ में इतनी रूचि नहीं होती, जितनी अशुभ कार्यों में होती हैं । ५. परमाधामी देवों के नारक जीवों को दुःख देकर खुश होने के कारण : __ जैसे हम व्यवहार में देखते हैं कि गाय, बैल, भैंस, भुंड, मुर्गे, तीतर आदि जानवरों में मल्लयुद्ध करानेवाले, कुस्तीबाज को परस्पर लड़ते देखकर एक दूसरे के उपर प्रहार करते देखकर, बिना वजह राग-द्वेष को वश होकर और अकुशलानुबंधि पुण्य धारण करके कितनेक लोकों को बहुत ही खुशी होती है। इसी प्रकार इस असुर कुमारों को भी ऐसी आसुरी खुशी अच्छी लगती है । नारकियों को लड़ते देखकर, परस्पर लड़ाकर, एक दूसरे को प्रहार करते देखकर, उनका आंनद-दुःख-वेदना-देखकर, वे बहुत ही खुश होते हैं । अट्टहास्य करते हैं । कपड़े उड़ाते हैं । लोटपोट होते हैं । ताली बजाते हैं । और बहुत जोरजोर से सिंहनाद भी करते हैं । इस प्रकार के दुःख देते हैं । M परमाधामी देवों को-नारक जीवों को इतना दुःख देने से और नैरयिकों का दुःख देखने से उनको बहुत खुशी क्यों होती है ? उसके भी कारण है १. शल्य :- परमाधामी देवों में मायाशल्य, निदान शल्य, मिथ्या दर्शन शल्य का उदय तीव्र होता है । साथ साथ कषाय का भी तीव्रोदय होता है । पूर्व भव में क्रूरकर्मी भी होते हैं । इसी कारण दूसरों को दुःख देकर उनको सुख मिलता है। २. अनालोचना :- उनको जिस भाव में दोष लगता है, उसकी आलोचना नहीं करते है, और पूर्व जन्म में भी आलोचना की नहीं है । ३. अविचारशील :- ये देव विचारशील नहीं होते । इससे ये अशुभ कृत्य करते हैं, इन कृत्यों में सहयोगी देवों की खुशी व्यक्त करने योग्य नहीं है । ऐसा विचार उनको कभी आता नहीं है । इसके विपरीत ये पापकार्यों में ही आनंद मानने वाले और संकिलष्ट अध्यवसाय वाले होते हैं । __४. अकुशलानुबंधि पुण्य :- पूर्व जन्म में उपार्जित पुण्यकर्म भी इन देवों को अकुशलानुबंधि होते हैं । इससे इन कर्मों के उदय से वे जब इस पुण्य का फल भोगते हैं, तब वे अशुभता की और ही खींचे चले जाते हैं । ५. बालतप :- पंचाग्नि आदि बालतप करने के कारण, भाव-दोष होने से, ये ऐसी रौद्री-आसुरी-गति प्राप्त करते हैं । मिथ्यादृष्टियों का तप भी पेमा विचार अनको सभा Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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