________________
२३४
होने से एकदूसरे को देखकर कुत्ते की तरह परस्पर लड़ते है-काटते है और गुस्सा होते है, परिणाम से उनको परस्पर जनित दुःखवाले कहे हैं । दुःख की पारस्परिक उदीरणा :नारक जीव के दो प्रकार हैं
(१) सम्यग्दृष्टि (२) मिथ्यादृष्टि । ___जो मिथ्यादृष्टि नारक जीव हैं, वे परस्पर दुःख उदीरते है । जैसे मनुष्यलोक में दूसरे ग्राम से आनेवाले कुत्ते को देखकर गाँव के सभी कुत्ते बिनाकारण अत्यंत क्रोधायमान होते हैं, परस्पर भौंकते है, लड़ते है, उसकी तरह ये नारक जीव भी विभंग ज्ञान की शक्ति से एक दूसरे को दूर से देखने के साथ ही क्रोध से धमधम हुए भौंकते हैं । महाक्रोधाविष्ट मनवाले ये दुःखरूप समुद्र में डूबते-डूबते भी अविचारी के जैसे उस कुत्ते की तरह एक दूसरे के साथ लड़ने लगते हैं । परस्पर लडाई का स्वरूप :
नैरयिक लडने के लिए वैक्रिय समुद्घात से महाभयंकर रूप विकुवर्णा करते हैं । अपने अपने नरकावास में क्षेत्रानुभाव जनित पृथ्वी के परिणाम रूप लोहमय ऐसे भूल, शिला, मुदगर, भाले, बाण, तोमर, असिपट्ट, खड्ग, यष्टि, तलवार, परशु आदि अनेक शस्त्रों की विकुवर्णा करते हैं । इन वैक्रिय शस्त्रों को ग्रहण करके उनसे और अपने हाथ-पैर और दांत से परस्पर प्रहार करते हैं । ऐसे परस्पर घात से छेद किये हुए विकृत अंगवाले हो जाते हैं । बाद में कतलखाने में काटे हुए प्राणी की तरह गाढ़ वेदना से व्याकुल होकर तड़पते हैं । पृथ्वी पर सिर्फ लोही के किचड में लौटते हैं । मिथ्यादृष्टि नारक जीव :
मिथ्याज्ञान लेप होने से परमार्थ को नहीं जानने से परस्पर दुःख की पूर्वोक्त रूप से विशेष उदीरणा करते हैं । दूसरों को दुःख देकर वे स्वयं बहुत दुःख को सहन करते हैं । विपुल प्रमाण में अशुभ कर्मों का उर्पाजन करते हैं । सम्यक्दृष्टि नारक जीव :
ये जीव समता भाव से तत्त्वविचारणा करते हैं कि हमने परभव में प्राणीहिंसादि अनेक पाप किये हैं, उसके फलस्वरूप हम यहाँ परम दुःखरूप समुद्र में
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org