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बकरी की लिण्डियों की अग्निवाली भट्ठियाँ, लोह गलाने की भट्ठियाँ, ताँबा गलाने की भट्ठियाँ, इसी तरह रांगा सीसा, चांदी सोना हिरण्य को गलाने की भट्ठिया, कुम्भकार के भट्ठ की अग्नि, मूस की अग्नि, ईंटें पकाने के भटे की अग्नि, कवेलु पकाने के भट्टे की अग्नि, लोहार के भट्ठे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तूष की अग्नि, नड-बांस की अग्नि आदि जो अग्नि और अग्नि के स्थान है जो तप्त है और तपकर अग्नि तुल्य हो गये हैं, फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाल-लाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियां निकल रही हैं, हजारो ज्वालाएँ निकल रही हैं, हजारों अंगारे जहा बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान है, जो अन्दर ही अन्दर धू-धू धधकते हैं, ऐसे अग्निस्थानों और अग्नियों को वह नारक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह अपनी उष्णता को (नरक की उष्णता को) शांत करता है, तृषा, क्षुधा, और दाह को दूर करता है और ऐसा होने से वह वहाँ नींद भी लेता है, आँखे भी मदता है, स्मृति, रति, धृति, और मति (चित्त की स्वस्थता) प्राप्त करता है और ठंडा होकर अत्यन्त शांति का अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहाँ से निकलता हुआ अत्यन्त सुख-साता का अनुभव करता है । भगवान के ऐसा कहने पर गौतम ने पूछा कि भगवन् ! क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है ? भगवान ने कहा-नहीं, यह बात नहीं हैं, इससे भी अनिष्टतर उष्णवेदना को नारक जीव अनुभव करते हैं ।७९
३. नैरयिक में शीतवेदना का स्वरूप असत् कल्पना से शीतवेदना वाले नरकों से निकला हुआ नैरयिक इस मनुष्यलोक में शीतप्रधान जो स्थान हैं जैसे कि हिम, हिमपुंज, हिमपटल के पुंज, तुषार, तुषार के पुंज, हिमकुण्ड, हिमकुण्ड के पुंज, शीत और शीतपुंज आदिक को देखता है, देखकर उनमें प्रवेश करता हैं, वह वहाँ अपने नारकीय शीत को, तृषा को, भूख को, ज्वर को, दाह को मिय लेता है और शांति के अनुभव से नीदं भी लेता हैं, नीद से आँखे बंद कर लेता है, इस प्रकार गरम होकर, अति गरम होकर वहाँ से धीरे धीरे निकल कर साता-सुख का अनुभव करता है । हे गौतम ! नरकों में नैरयिक इससे भी अनिष्टतर शीतवेदना का अनुभव करते हैं ।
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