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२१२ के बाद दूसरी नरकभूमि है । दूसरी और तीसरी नरकभूमि के बीच में भी क्रमशः घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश है । इसी तरह सातवीं नरकपृथ्वी तक सब भूमियों के नीचे इसी क्रम से घनोदधि आदि हैं ।५०
६. नारकियों का निवास-स्थान १. नरकावासों का स्वरूप :
___ जीवाभिगम में उल्लेख है कि सभी नरकावास सम्पूर्ण रूप से वज्रमय हैं, अर्थात् ये वज्र से बने हुए हैं । उनमें खर बादर पृथ्वीकाय के जीव और पुद्गल च्यवते हैं (मरते) और उत्पन्न होते हैं । अर्थात् पहले स्थित जीव निकलते हैं
और नये जीव आकर उत्पन्न होते हैं । इस तरह पुद्गल भी कोई च्यवते हैं और कोई नये आकर मिलते हैं । यह आने-जाने की प्रक्रिया वहाँ निरन्तर चलती रहती हैं । इसके बावजूद भी रत्नप्रभादि नरकों की रचना शाश्वत है । इसलिए द्रव्यनय की अपेक्षा से ये नित्य हैं । सदाकाल से थे, सदाकाल से हैं, और सदाकाल रहेंगे । इस प्रकार द्रव्य से शाश्वत होते हुए भी इनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदलते रहते हैं, इस अपेक्षा से वे अशाश्वत हैं । जैनसिद्धान्त विविध अपेक्षाओं से वस्तु को विविध रूप में मानता है। इनमें कोई विरोध नहीं है । अपेक्षाभेद से शाश्वत और आशाश्वत मानने में कोई विरोध नहीं है । स्याद्वाद सर्वथा सुसंगत सिद्धान्त है ।५१ २. नरकावासों का संस्थान
संस्थान अर्थात् आकार । यहाँ रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के आकार का उल्लेख किया गया हैं । ये नरकावास के दो प्रकार हैं
१. आवलिकाप्रविष्ट और, २. आवलिकाबाह्य ।
जो आठों दिशाओं में जो समश्रेणी में (श्रेणीबद्ध-कतारबद्ध) हैं, उन्हें आवलिकाप्रविष्ट कहते हैं ।५२ वे तीन प्रकार के हैं-१. गोल, २. त्रिकाण, और ३. चतुष्कोण ।
जो आवलिका से बाहर (पुष्पावकीर्ण) पुष्पों की तरह बिखरे-बिखरे हैं, वे आवलिकाबाह्य नरकावास कहलाते हैं । ये नरकावास नाना प्रकार के आकारों के हैं । जीवाजीवाभिगम सूत्र में विविध आकारों का उल्लेख किया गया हैं ।
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