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२. इन्द्रिय- नैरयिकों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, और श्रोत्रेन्द्रिय ये पाँचो ही इन्द्रियाँ होती है । २४ अर्थात् ये पंचेन्द्रिय प्राणी हैं । ३. संहनन - छह प्रकार के संहननों में से नारक जीवों के शरीर में कोई भी संहनन नहीं होता । उनके शरीरों में न तो शिराएँ होती हैं, और न स्नायु । उनके शरीर में हड्डियाँ भी ही नहीं होती । संहनन की परिभाषा है— अस्थियों का निश्चय होना । जब कि नैरयिकों के शरीर में अस्थियाँ होती ही नहीं हैं । २५
४ संस्थान- नारकों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय- दोनों प्रकार के शरीर हुण्डक संस्थान वाले हैं । तथाविध भवस्वभाव से नारकों के शरीर जड़मूल से उखाड़े गये पंख और ग्रीवा आदि अवयव वाले रोम-पक्षी की तरह अत्यन्त बीभत्स होते हैं । २६ इन जीवों का शरीर और भूमि की आकृति देखनेवाले को उद्वेग उत्पन्न हो जाता है, जो अपने को देखकर महाउद्वेग जनक लगता है, ऐसे वे अत्यंत कुब्ज होते है ।
५. कषाय- नारकों में चारों ही कषाय होते हैं-क्रोध, मान, माया, ये चारों ही कषाय प्रचुर मात्रा में होते हैं ।
परिग्रह |
हैं |२७
६ संज्ञा - नारकों में चारों ही संज्ञाएँ होती हैं - आहार, भय, मैथुन और
७. योग - नारकों में मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये तीनों योग होते
लोभ ।
५ उपयोग - नारक साकार और अनाकार दोनों उपयोग के उपयोग वाले होते हैं । २८
९. आहार - नरक के जीव लोक के निष्कूट ( किनारे) में नहीं होते, मध्य में होते हैं, इसलिए उनके व्याघात नहीं होता । अतः छहों दिशाओं के पुद्गलों को वे ग्रहण करते हैं और प्राय: अशुभ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ।
नैरयिक का आहार :- आहार हर जीव की चार संज्ञा में से एक है । उसी तरह नरक में भी कोई जीव वहाँ जा परिणमता है या शरीर बांधता है, और कोई लौटता है, वापस लौट कर यहाँ आता है । यहाँ आ
चारों गति में जीव आहार करता है, कर ही आहार करता है, आहार को जीव वहाँ जा कर वापस
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