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१७७ देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी करणीय है और पश्चात् भी करणीय है, यह आप देवानुप्रिय के लिए पहले और बाद में हितकारी यावत् साथ में चलने वाला होगा, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से जय-जयकार शब्द का प्रयोग करते हैं ।
सामानिक परिषदा के देवों से उपरोक्त वर्णन सुनकर विजयदेव हर्षित होकर देवशयनीय से उठकर देवदूष्य युगल धारण करके नीचे उतरकर उपपात सभा से पूर्वदिशा के द्वार से बाहर निकलता है। जिस जगह सरोवर (हृद) है वहाँ जाकर उसकी प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के तोरण से उसमें प्रवेश करता है । पूर्वदिशा के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतरकर जल में अवगाहन करके जल में डुबकी लगाकर जलक्रीडा करता है। इस प्रकार अत्यन्त पवित्र जिस जगह अभिषेक सभा थी उस जगह जाकर प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करके जिस जगह सिंहासन था उसके पूर्वदिशा की और मुख करके सिंहासन बैठ जाता है ।
विजयदेव की सामानिक परिषदा के देवों ने अपने आभियोगिक (सेवक) देवों को बुलाकर कहा कि हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव के महार्थ, महधिक और विपुल इन्द्राभिषेक की तैयारी करो ।।
आभियोगिक देव द्वारा अभिषेक की तैयारी आभियोगिक देव उत्तरपूर्व दिशाभाग में जाकर वैकिय-समुद्घात से समवहत होकर संख्यात योजन का दण्ड निकाल के रिष्टरत्नों के तथाविध बादर पुद्गलों को छोडते हैं यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते है । उसके बाद दुबारा वैक्रिय समुद्घात से समवहत होते हैं और एक हजार आठ सोने के कलश, चाँदी के कलश, मणियों, सोने-चाँदी, सोने-मणियों, चांदी-मणियों, मिट्टी कलश, झारिया इसी प्रकार आदर्शक, स्थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठक, चित्र, रत्नकरण्डक, पुष्पचंगेरिया, पुष्पपटलक, सिंहासन, छत्र, चामर, ध्वजा, तेलसमुद्गक, धूप के कडुच्छुकल सभी वस्तु एक सौ आठ अपनी विक्रिया से बनाते है । अपने वैक्रिय से निर्मित कलशों, और धूपकडुच्छकों को लेकर विजया राजधानी से निकलते हैं और उस उत्कृष्टों दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीपसमुद्रों में से क्षीरोदसमुद्र का जल और शतपत्र कमल को ग्रहण करते हैं । पुष्करसमुद्र का जल और कमलों को लिया । समयक्षेत्र में मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ जल, तीर्थ की मिट्टी, महानदियों का पानी (जल), मिट्टी, ग्रहण की । वर्षधर पर्वत से ऋतुओं के श्रेष्ठ सब जाति के फुलों, गंधों, गूंथी हुई मालाओ, औषधियों और सब जाति
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