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सिंहासन की चतुर्दिग्वर्ती भद्रासन-रचना आभियोगिक देव ने उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर(वायव्य लोक), उत्तर और उत्तर पूर्व दिग्भाग (ईशान कोण) में सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देवों के बैठने के लिए चार हजार भद्रासनों की रचना की ।
पूर्व दिशा में सूर्याभ देव की परिवार सहित चार अग्र महिषियों के लिए चार हजार भद्रासनों की रचना की ।
दक्षिणपूर्व दिशा मे सूर्याभ देव की आभ्यन्तर परिषद के आठ हजार देवों के लिये आठ हजार भद्रासनों की रचना की । दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद के देवों के लिए दस हजार भद्रासनों की, दक्षिण-पश्चिम दिग्भाग में बाह्य परिषदा के बारह हजार देवों के लिए बारह हजार भद्रासनों की और पश्चिम दिशा में सप्त अनीकाधिपतियों के लिए सात भद्रासनों की रचना की ।
तत्पश्चात् सूर्याभदेव के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के लिए क्रमशः पूर्व दिशा में चार हजार, दक्षिण दिशा में चार हजार, पश्चिम दिशा में चार हजार और उत्तर दिशा में चार हजार, इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह हजार भद्रासनों को स्थापित किया ।
सूर्याभदेव की जिज्ञासा का समाधान सूर्याभ देव के प्र पुछने पर भगवान् महावीर ने उत्तर दिया है-तुम भवसिद्धिक-भव्य हो, अभवसिद्धिक-अभव्य नहीं हो, यावत् चरम शरीरी हो अर्थात् इस भव के पश्चात् का तुम्हारा मनुष्यभव अंतिम होगा, अचरम शरीर नहीं हो अर्थात् हे सूर्याभ ! तुम भव्य हो, सम्यग् दृष्टि हो, परिमित संसार वाले हो, तुम्हें बोधि की प्राप्ति सुलभ है, तुम आराधक हो और चरम शरीरी हो ।
सूर्याभविमान के द्वारों का वर्णन सूर्याभदेव के विमान की एक-एक बाजू में एक-एक हजार द्वार कहे गये हैं, अर्थात् उस विमान की पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन चारों दिशाओं में प्रत्येक में एक-एक हजार द्वार हैं ।
__ ये प्रत्येक द्वार पाँच-पांच सौ योजन ऊंचे हैं, अढाई सौ योजन चैड़े हैं और इतना ही (अढाई सौ योजन) इनका प्रवेशन-गमनागमन के लिए घुसने का
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