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३२. चरमचरमनामानिबद्ध नामा उस नाट्यविधि में भगवान वर्धमान स्वामी का
चरम पूर्व मनुष्यभव, चरम देवलोक भव, चरम-च्यवन, चरम गर्भसंहरण, चरम तीर्थंकर जन्माभिषेक, चरम बालभाव, चरम यौवन, चरम निष्कमण, चरम तपश्चरण, चरम ज्ञानोत्पाद, चरम तीर्थप्रवर्तन, चरम परिनिर्वाण को बताने वाला अभिनय किया जाता था ।
इन बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियों को भगवान महावीर और गौतम आदि गणधरों के सामने सूर्याभदेवने अति आग्रह पूर्वक प्रस्तुत किया था ।
वाद्य चार प्रकार के हैं(१) तत-मृदग, पटह आदि । (२) वितत-वीणा आदि । (३) घन-कंसिका आदि । (४) शुषिर-बांसुरी (काहला) आदि ।
गेय चार प्रकार हैं-१) उत्क्षिप्त-प्रथम आरंभिक रूप. २) प्रवृत्त-अक्षिप्त अवस्था से अधिक ऊँचे स्वर से गेय ३) मन्दाय-मध्यभाग में मूर्छनादियुक्त मंदमंद घोलनात्मक गेय। ४) रोचितावसान-जिस गेय का अवसान यथोचित रूप से किया गया हो । अभिनय के चार प्रकार है-१६५
१) दार्टान्तिक २) प्रतिश्रुतिक ३) सामान्यतोविनिपातिक और ४) लोकमध्यावसान । इनका स्वरूप नाट्यकुशलों द्वारा जानना चाहिए ।
प्रकण्ठकों के उपर प्रासादावतंसक सभी प्रकण्ठकों के ऊपर एक-एक प्रासादावतंसक (श्रेष्ठमहल-विशेष) है। वे अठाई सौ योजन ऊँचे और सवा सौ योजन चौड़े हैं, चारों दिशाओं में व्याप्त अपनी प्रभा से हसते हुए से प्रतीत होते हैं । विविध प्रकार के मणि-रत्नों से, इनमें चित्र-विचित्र रचनायें बनी हुई हैं । हवा से फहराती हुई, विजय को सूचित करने वाली वैजयन्ती-पताकाओं एवं छत्रातिछत्रों (एक दुसरे के ऊपर रहे हुए छत्रों) से अलंकृत हैं, अत्यन्त ऊँचे होने से इनके शिखर मानो आकाशतल का उल्लंघन करते हैं । विशिष्ट शोभा के लिये जाली-झरोखों में रत्न जड़े हुए हैं । वे रत्न ऐसे चमकते हैं मानों तत्काल पिटारों से निकाले हुए हों । मणियों और
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