________________
दूसरे से सातवीं नारकभूमी में नारकावास देखे नरक प्रकरण में । सातवीं पृथ्वी के नीचे एक रज्जु-प्रमाण मोटे और सात रज्जु-विस्तृत क्षेत्र में केवल एकेन्द्रिय जीव ही रहते है ।
नरक कैसा है ? किससे बना है ? वहाँ कैसी वेदना नैरयिकों को दी जाती है ? आदि आंतरिक वर्णन प्रकरण ४ में विस्तार से दिया गया है ।
ति लोक ति लोक को मध्यलोक में भी कहते हैं । ति लोक की आकृति झालर के समान है। मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं जो द्वीप के बाद समुद्र और समुद्र के बाद द्वीप इस क्रम से अवस्थित है । द्वीप-समुद्रों की रचना चक्की के पाट और उसके थाल के समान है। मध्यलोक के मध्य में जंबूद्वीप है । जम्बूद्वीप लवणसमुद्र से वेष्टित है । जम्बूद्वीप कुम्हार के चाक (थाली के) की भांति गोल है और अन्य सब द्वीप-समुद्रों (लवणादि) आदि की आकृति वलय (चूड़ी) के समान है।
ज्योतिषचक्र, मेरूपर्वत, जंबुद्वीपादि असंख्य द्वीप और समुद्र तथा दस तिर्यग्नुंभक देवों के स्थान हैं, जब कि नीचे के ९०० योजन प्रमाण विस्तार में वाणव्यंतर एवं व्यंतर देव है । रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरी धरातल से नीचे की और दस योजन के बाद अस्सी योजन के विस्तार में वाणव्यंतर देव है और उसके नीचे दस योजन के विस्तार में व्यंतर देवों के नगर है।
उर्ध्वलोक (स्वर्ग) मेरू-पर्वत को तीनों लोक का विभाजक माना गया है । मेरू के अधस्तन भाग को अधोलोक और मेरू के ऊपर के भाग को उर्ध्व-लोक कहते है । उर्ध्वलोक में श्वेताम्बरीय मान्यतानुसार स्वर्गो की संख्या बारह है और दिगम्बरीय मान्यतानुसार सोलह है । इन स्वर्गों में कल्पवासी देव और देवियाँ रहती हैं ।२
अधोलोक से एक से सात रज्जु में सात नरक है, नरक के बाद आठवें रज्जु में एक और दो क्रमांक का देवलोक वैमानिक, किल्बिषिक देवों के विमान होते है । नौवें रज्जु में तीसरा और चौथा देवलोक है । उसमें किल्बिषिक देव के निवास स्थान विमान हैं । दसवें रज्जु में पांचवा और छठवा देवलोक में किल्विषिक, नव लोकान्तिक देवों का निवास(विमान) हैं, ग्यारहवें रज्जु में सातवाँ और आठवाँ देवलोक, बारहवें रज्जु में नौ से बारह देवलोक में वैमानिक देवों
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.