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। इन में हास्य और बोल-चाल बहुत होता है । इनके हाथों में खड्ग, मुद्गर, शक्ति और भाले आदि शस्त्र भी रहते हैं । ये शस्त्र अनेक मणियों और रत्नों के विविध चिह्न वाले होते हैं ।५ भवनवासी देवों की तरह ये भी महर्द्धिक, उपभोगों को भोगते हैं ।
विशेष विवक्षा में पिशाच आदि व्यन्तर देव भी इसी प्रकार है । भौमेयनगरों में ये पिशाचदेव अपने अपने भवन, सामानिक आदि देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं । इन नगरावासों में दो पिशाचेन्द्र, पिशाचराज काल और महाकाल निवास करते हैं । वे महर्दिक महाद्युतिमान होते हैं । भुवनपतिदेवों की भांति ये दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं । दक्षिणवर्ती क्षेत्र का इन्द्र पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल है और उत्तरवर्ती क्षेत्र का इन्द्र पिशाचेन्द्र पिशाचराज महाकाल है ।
इन्द्र का आधिपत्य :-८६
वह पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल तिरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नगरावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का और बहुत से दक्षिणदिशा के व्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य करता है 1
४. पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल की परिषदाएँ
पिशाचेन्द्र काल जब अपनी सभा में विराजमान होता है, तब उसकी परिषदा तीन प्रकार की होती हैं ।
उसकी ये तीन परिषदाएँ हैं- ईशा, त्रुटिता और दृढरथा ।
१) आभ्यन्तर परिषद को ईशा कहते हैं । इसमें आठ हजार देव और एक सौ-देवियाँ होती हैं। आधे पल्योपम स्थिति देवों की और कुछ अधिक पाव पल्योपम की स्थिति इनकी देवियों की होती है ।
२) मध्यम परिषद :- इसे त्रुटिता कहते है । इसमें दस हजार देव और एक सौ देवियाँ होती हैं । देशोन आधे पल्योपम स्थिति देवों की और पाव पल्योपम देवियों की स्थिति होती है ।
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