________________
१०७
३) बाह्य परिषद :- इस को दृढस्था कहते हैं । इसमें बारह हजार देव और एक सौ देवियाँ होती हैं । कुछ अधिक पाव पल्योपम देवों की और देशोन पाव पल्योपम स्थिति देवियों की होती हैं ।
उत्तरवर्ती पिशाचकुमार देव दक्षिणात्य देव की भांति ही हैं । उनका इन्द्र महाकाल है । काल के समान ही महाकाल की वक्तव्यता भी है ।
__ इसी प्रकार की वक्तव्यता समस्त व्यन्तरेन्द्रों अर्थात् भूतों से लेकर गन्धर्वदेवों के इन्द्र गीतयश तक की है। किन्तु इसमें अपने अपने इन्द्रों के नाम, परिषदा के नामों में भिन्नता हैं ।
५. व्यन्तर निकाय के इन्द्र आठ प्रकार के व्यन्तर निकाय के देवों के प्रत्येक के दो-दो इंद्र होते हैं । इनके नाम निम्न प्रकार से है
१) पिशाच के दो इन्द्र-काल और महाकाल । २) भूत के दो इन्द्र-सुरूप और प्रतिरूप । ३) यक्ष के दो इन्द्र-पूर्णभद्र और माणिभद्र । ४) राक्षस के दो इन्द्र-भीम और महाभीम । ५) किन्नर के दो इन्द्र–किन्नर और किंपुरुष । ६) किंपुरुष के दो इन्द्र-सत्पुरुष और महापुरुष । ७) महोरग के दो इन्द्र-अतिकाय और महाकाय । ८) गन्धव के दो इन्द्र-गीतरति और गीतयश ।८
उक्त दो-दो इन्द्रों में से प्रथम दक्षिणदिशावर्ती देवों का इन्द्र है और दूसरा उत्तरदिशावर्ती वानव्यन्तर देवों का इन्द्र है । इनकी परिषदाओं की संख्या भिन्न होती है । इसका जीवाजीवाभिगम-सूत्र में विस्तार से उल्लेख किया गया है ।
६. इन्द्रों का परिवार व्यंतरेन्द्रों में से प्रत्येक के प्रतीक सामानिक, तनुरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक और आभियोग्य इस प्रकार ८ देवों का परिवार होता है । प्रत्येक इन्द्रके चार-चार देवियाँ और दो-दो महत्तरिकाएँ होती हैं। निम्न कोष्टक में प्रत्येक
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org