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१४८ डलिया) से कचग्रहवत् (कामुकता से हाथों में ली गई कामिनी की केश-राशि के तुल्य) फुलों को हाथ में लेकर छोड़े गये पंचरंगे पुष्पपुंजों को बिखेर कर राजप्रांगण से परब (प्याऊ) को सब तरफ से समलंकृत कर देता है उसी प्रकार से पुष्प-वर्षक बादलों की विकुर्वणा की । वे अभ्रबादलों की तरह गरजने लगते हैं । एक योजन प्रमाण गोलाकार भूभाग में दीप्तिमान जलज और स्थलज पंचरंगी पुष्पों को प्रभूत मात्रा में इस तरह बरसाया कि सर्वत्र उनकी ऊँचाई एक हाथ प्रमाण हो गई एवं डंडिया नीचे और पंखुडियाँ ऊपर रही ।
पुष्पावर्षा करने के पश्चात् मनमोहक सुगंध वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरूष्क, तुरूष्क-लोबान और धूप को जलाया । उनकी मनमोहक सुगन्ध से सारा प्रदेश महकने लगा, श्रेष्ठ सुगन्ध के कारण सुगन्ध की गुटिका जैसा बन गया । दिव्य एवं श्रेष्ठ देवों के अभिगमन योग्य हो गया । इस प्रकार से स्वयं करके और दूसरों से करवा करके उन्होंने अपने कार्य को पूर्ण किया ।१५८
इस तरह तीन बार आभियोगिक देव अलग-अलग प्रकार की विकुँवणा करते हैं।
सूर्याभदेव की उद्घोषणा एवं आदेश सूर्याभदेव ने पदाति-अनीकाधिपति (स्थलसेनापति) को बुलाकर उससे कहा
हे देवानुप्रिय ! तुम शीध्र ही सूर्याभ विमान की सुधर्मा सभा में स्थित मेघसमूह जैसी गंभीर मधुर शब्द करने वाली एक योजन प्रमाण गोलाकार सुस्वर घंटा को तीन बार बजाकर उच्चाति उच्च स्वर में घोषणा-उद्घोषणा करते हुए यह कहना कि
हे सूर्याभ विमान में रहने वाले देवों और देवियों ! सूर्याभदेव की आज्ञा सुनो ! जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में स्थित आम्रशालवन चैत्य में बिराजमान श्रमण भगवान महावीर की वंदना करने के लिए सूर्याभ देव जा रहे है । अतएव है देवानुप्रियो ! आप लोग समस्त ऋद्धि (आभूषण) आदि की कांति बल (सेना) समुदय-अभ्युदय दिखावे । अपने अपने आभियोगिक देवों के समुदाय, आदरसम्मान विभूति, विभूषा, एवं भक्तिजन्य उत्सुकतापूर्वक सर्व प्रकार के पुष्पों, वेशभूषाओं, सुगंधित पदार्थों, एक साथ बजाये जा रहे । समस्त दिव्य वाद्यों-शंख, प्रणव, (ढोलक) पटह (नगाड़ा) भेरी, झालर, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज (तबला),
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