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तीन परिषदा :- सभी विमानधिपति देवों की-१. आभ्यन्तर, २. मध्यम और ३. बाह्य ये तीन परिषदायें होती हैं । जिनसे अपने अंतरंग, गुप्त गूढ रहस्यों के लिये विचार किया जाता है, ऐसे परमविश्वसनीय समवयस्क मित्र समुदाय को आभ्यन्तर परिषद, आभ्यन्तर परिषद में चर्चित एवं निर्णीत विचारों के लिये जिससे सम्मति-राय ली जाती है उसे मध्यमपरिषद और आभ्यन्तर तथा मध्यम परिषद द्वारा विचारित, निर्णीत एवं सम्मत कार्य को क्रियान्वित करने का दायित्व जिसे दिया जाता है, उसे बाह्य परिषद कहते हैं ।
सात सेनायें :- अश्व, गज, रथ, पदाति, वृषभ (बैल), गंधर्व और नाट्य ये सेनाओं के सात प्रकार हैं । इनमें से आदि की पांच का युद्धार्थ और अंतिम दो का आमोद-प्रमोद के लिये उपयोग किया जाता है और ये अपने अपने अधिपति के नेतृत्त्व में कार्य संपादित करने में सक्षम होने से इनके सात सेनापति होते हैं ।
___ आत्मरक्षक देव-शिरस्त्राण जैसे प्राणरक्षक होता है, उसी प्रकार ये देव भी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने अधिपतिदेव की रक्षा करने में तत्पर रहने से आत्मरक्षक कहलाते हैं । यद्यपि इन्द्र आदि देवों को किसी का भय नहीं होता फिर भी आत्मरक्षकों की आवश्यकता होती है। यह भी इन्द्र का एक वैभव हैं ।१५३
आभियोगिक देव :- जैसे हमारे यहाँ घरेलू काम करने के लिये वेतनभोगी भृत्य-नौकर होते हैं, उसी प्रकार की स्थिति देवलोक में आभियोगिक देवों की है । वे अपने स्वामी देव की आज्ञा का पालन करने के लिये नियुक्त रहते हैं । अर्थात् अपने स्वामी देव की आज्ञा का पालन करने वाले भृत्य-सेवक स्थानीय देवों को आभियोगिक देव कहा जाता है ।५४
इस प्रकार के देवों से संपूर्ण ऐसी सूर्याभदेव की सभा होती हैं ।
__ सूर्याभदेव की आभियोगिक देवों को आज्ञा
सूर्याभदेव आभियोगिक देवों को आदेश इस प्रकार देते हैं :- हे देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरतक्षेत्र में स्थिति आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान महावीर की दक्षिण दिशा से प्रारंभ करके तीन बार प्रदक्षिणा करो । प्रदक्षिणा करके वंदना, नमस्कार करो । वंदना, नमस्कार करके तुम अपने-अपने नाम और
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