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की यह अवस्था है। विशुद्ध चित्तवृत्ति प्रवाहित होती है । उसका देहाध्यास मिट जाता है । मात्र शरीर को धारण करने वाली प्रारब्ध कर्म-वासनाएँ ही प्रवृत्त होती है। ऐसा पुरुष ही जीवन्मुक्त, केवली कहलाता है। उसका मोक्ष भी निश्चित रूप से होता ही है।
चार्वाक दर्शन जीवन काल में किसी के आधीन न होना उसे ही जीवन्मुक्ति मानता है तथा जीवन की समाप्ति को मोक्ष ।
बौद्ध दर्शन में जीवन्मुक्तावस्था को सोपधिशेष निर्वाण कहा है । उस अवस्था में साधक के सब क्लेशावरणों का प्रहाण होता है। इसे विमुक्तकाय की दशा भी कहा है । विदेहमुक्ति को निरूपधिशेष निर्वाण से व्यवहृत किया गया है । इस दशा में चित्त-सन्तति का सर्वथा उच्छेद हो जाता है ।
न्याय-वैशेषिकों के अनुसार भी जीवनकाल में ही मिथ्याज्ञानजन्य वासनाओं का अभाव होना जीवन्मुक्ति है ।१ आत्मा के साथ शरीर, प्राण, इन्द्रियों का संयोग जीवन है । और तद्जन्य दुःखो की आत्यन्तिक निवृत्ति या दुःखो का ध्वंस मोक्ष
सांख्य मत में सत्वपुरुषान्यथाख्याति का उदय होने से जीवन्मुक्ति को मध्यविवेक की अवस्था कहा गया है ।२ अज्ञान का नाश होकर तत्त्वज्ञान होने पर ही जीवन्मुक्ति संभव है। यह जीवन्मुक्त कुलाल के चक्र के घूमने के सदृश वह जीवन्मुक्त भी स्थित रहता है। उसके जीवन के पश्चात् विदेहमुक्ति होती है।
योगदर्शन में ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय ही जीवन्मुक्ति कहा है ।४३ उस समय योगी जीवन से संयुक्त होने पर भी दुःखों से असंश्लिष्ट रहता है । दग्ध बीजांकुरों के समान उसके क्लेश दग्ध हो जाते हैं । चित्त की विक्षिप्तता इसमें सभव नहीं । इस अवस्था को धर्ममेघ समाधि कहते हैं । इसका लाभ होने पर जीवन होने पर भी वह मुक्त हैं । फलस्वरूप क्लिष्ट वृत्तियों का उपशम होने पर जीवनदशा में ही योगी कैवल्य लाभ करते हैं ।
अद्वैतियों की जीवन्मुक्ति कुछ भिन्न है । तत्त्व साक्षात्कार होने पर उत्क्रमण के बिना ही जीव यहीं पर ब्रह्मानंद का अनुभव करता है । शंकराचार्य और उनकी शिष्य परंपरा ने जीवन्मुक्ति को मान्य किया है, उसका समर्थन किया है । किन्तु मंडन मिश्र एवं वाचस्पति मिश्र आदि ने इसे अवस्था न मानकर साधक अवस्था में इसका अन्तर्भाव कर लिया है।
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