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वैक्रियशररीरधारी देवों का आहार अचित्र ही होता है ।
देवों के आहार में यह नियम है कि दस हजार वर्ष की आयुवाले देव एक - एक दिन बीच में छोड़कर आहार ग्रहण करते है । पल्योपम की आयुवाले दिनपृथकत्व" के बाद आहार लेते है । सागरोपम की स्थितिवाले देवों के विषय में यह नियम है कि जिनकी आयु जितने सागरोपम की हो वे देव उतने हजार वर्ष के बाद आहार ग्रहण करते है । स्पष्ट है कि ऊपर ऊपर के देवों की आहार वर्गणा कम हो जाती है ।
३. वेदना :
अर्थात् एक प्रकार की अनुभूति है, वह तीन प्रकार की है- शीत, उष्ण और शीतोष्ण । सामान्यतः देवों के साता (सुख - वेदना ) ही होती है । कभी असाता (दुःख - वेदना) हो जाय तो वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं रहती । सातावेदना भी लगातार छः महीने तक एक-सी रहकर बदल जाती है । ३६ च्यवन काल निकट आता है, तब अंतिम छ: महिनोंमें वेदना का अनुभव रहता हैं ।
४. उपपात :
उपपात अर्थात् उत्पत्तिस्थान की योग्यता । परलिंगिक अर्थात् जैनेतरलिङ्गिक मिथ्वात्वी बारहवें स्वर्ग तक ही उत्पन्न हो सकते हैं । स्व अर्थात् जैनलिङ्गिक मिथ्यात्वी ग्रैवेयक तक जा सकते है । सम्यग्दृष्टि पहले स्वर्ग से सर्वार्थसिद्ध तक कहीं भी जा सकते हैं, परंतु चतुर्दश पूर्वधारी संयती ( मुनि) पाँचवें स्वर्ग से नीचे उत्पन्न नहीं होते ।
५ अनुभाव :
अनुभाव अर्थात् लोकस्वभाव (प्रकृति) इसी के कारण सब विमान तथा सिद्धशिला आदि आकाश में निराधार अवस्थित हैं ।
अरिहंत भगवान् के जन्माभिषेक आदि प्रसंगों पर देवों के आसन का कम्पित होना भी लोकानुभाव का ही कार्य है । आसनकम्प के अनन्तर अवधिज्ञान के उपयोग से तीर्थंङ्कर की महिमा को जानकर कुछ देव उनके निकट पहुँचकर उनकी स्तुति, वन्दना, उपासना आदि करके आत्मकल्याण करते हैं । कुछ देव अपने ही स्थान पर प्रत्युत्थान, अञ्जलिकर्म, प्रणिपात, नमस्कार, उपहार आदि द्वारा तीर्थङ्कर की अर्चा करते है । यह भी लोकानुभाव का ही कार्य है । ३७
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