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वनाहार १२. रूपयक्ष और १३. यक्षोत्तम । ६) राक्षस देव के सात प्रभेद हैं
१. भीम, २. महाभीम, ३. विघ्न, ४. विनायक, ५. जल राक्षस, ६. राक्षस-राक्षस और ७. ब्रह्मराक्षस । ७) भूत के नौ प्रभेद हैं
१. सुरूप, २. प्रतिरूप, ३. अतिरूप, ४. भूतोत्तम, ५. स्कन्द, ६. महास्कन्द, ७. महावेग, ८. प्रतिच्छन्न और ९. आकाशग । ८) पिशाच के सोलह प्रभेद हैं
१. कूष्माण्ड, २. पटक, ३. सुजोष, ४. आह्निक, ५. काल, ६. महाकाल, ७. चोक्ष, ८. अचोक्ष, ९. तालपिशाच, १०. मुखरपिशाच, ११. अधस्तारक, १२. देह, १३. विदेह, १४. महादेव, १५. तृष्णीक और १६. वनपिशाच ।
उपर्युक्त प्रकार से व्यन्तर के भेद-प्रभेद का वर्णन किया गया है ।१.
विशेष :- व्यन्तर देवों के आठ भेद हैं, वे मूलभेद हैं । इसके अतिरिक्त आठ भेदों का स्थानांग-प्रज्ञापनादि में उल्लेख है :-८२
१) अणपन्नी, २) पणपन्नी, ३) ऋषिवादी ४) भूतवादी, ५) कंदीत, ६) महाकंदीत, ७) कोहड और ८) पतंग ।
ये व्यंतर देव रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के १०० योजन में से ऊपर नीचे के १०-१० योजन कम करके मध्य के ८० योजन में रहते हैं ।।
लोकप्रकाश ३ में व्यंतर निकाय के तीन भेद अन्य रीति से दर्शाये हैं । तिर्यकर्जूभक देवों को भी इसी निकाय में सम्मिलित किया है । ये तीन भेद हैं
१. व्यतंर, २. वाणव्यंतर ३. तिर्यक्जुंभक देव तिर्यक्जुंभक के भी दश भेद हैं
१. अन्नमुंभक, २. पानमुंभक, ३. वस्त्रजुंभक, ४. वस्तीजुंभक, ५. पुष्पमुंभक, ६. फलजुंभक, ७. पुष्पफल मुंभक, ८. शयनजुंभक, ९. विद्याजुंभक, १०) अव्यक्तनँभक ।
ये देव अन्न आदि वस्तुओं की कमी हो तो पूरी करते हैं । और कम रसवाली हो तो रसयुक्त कर देते हैं । ये चित्र-विचित्र-वैताढ्य-मेरू आदि पर्वतों
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