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विकृतियाँ जन्म लेती है।
. १) ज्ञानावरणीय कर्म :- जो आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करता है वह है ज्ञानावरणीय कर्म । यह आँख पर बंधी पट्टी के समान होता है। प्रकाश को आच्छादित करनेवाले/ढाँकनेवाले बादल के समान ज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है । अज्ञानता, मूर्खता आदि उसकी विकृतियाँ हैं ।
२) दर्शनावरणीय कर्म :- आत्मा के दर्शन गुण पर रोक लगाने वाला कर्म है दर्शनावरणीय कर्म । यह प्रतिहारी द्वारपाल की तरह होता है । प्रकाश को छिपानेवाला बादल के समान दर्शनावरणीय कर्म है । इन्द्रियों की असम्पूर्णता, अंधत्व, बधिरपना, मूकत्व, निद्रा आदि विकृतियाँ इससे प्रगट होती है ।।
३) वेदनीय कर्म :- अव्याबाध सुख को रोकने वाला है वेदनीय कर्म । यह शहद मे लिप्त तलवार की धार की तरह होता है । यह अनन्तसुख को नष्ट करनेवाला बादल के समान है । वेदनीय कर्म शाता-अशाता, शांति-अशांति और सुख-दुःख प्राप्ति का कारण बनता है ।
४) मोहनीय कर्म :- मोह, आसक्ति के कारण जीव को शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति को रोकने वाला मोहनीय कर्म है । यह मदिरा की तरह होता है । क्षायिक समकित एवं अनन्त चारित्र को रोकनेवाला कर्म है मोहनीय कर्म । जिससे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, आदि दुर्गुणों की प्राप्ति होती है ।
५) आयुष्य कर्म :- चार गति में जन्म-मरण कराकर, उसमें रोकनेवाला है आयुष्य कर्म । यह कारागृह की तरह होता है । अक्षय स्थितिरूपी प्रकाशको मूंदनेवाला बादल है आयुष्य कर्म । जिससे जन्म, जीवन, मृत्यु की प्राप्ति होती
६) नाम कर्म :- यह चित्रकार के समान होता है । अरूपकता-निराकारत्व को विनष्ट करनेवाला बादल है नाम कर्म । जिससे गति-शरीर, इन्द्रिय-यशअपयश-सौभाग्य-दुर्भाग्यादि की प्राप्ति होती है ।
७) गोत्र कर्म :- यह कुम्हार के समान होता है । अगुरू-लघुता को रोकनेवाला' बादल है गोत्र कर्म । जिससे ऊँच कुल-नीच कुल की प्राप्ति होती है वह गोत्र कर्म हैं।
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