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की दस जातियाँ हैं, जो सामानिक आदि अन्य देवों के स्वामी होते हैं, उन्हें इन्द्र कहते हैं।
भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों के प्रकार है । उनमें से भवनवासियों में भी उपर्युक्त दस भेद हैं । किन्तु व्यंतर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल को छोड़कर शेष आठ भेद होते हैं । व्यन्तर देवों के आवास रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम-द्वितीय काण्ड में तथा मध्य लोकवर्ती असंख्यात द्वीप और समुद्रों में पाये जाते हैं ।
पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग के अंत में सारस्वत आदि लोकान्तिक देव रहते हैं । ये देवर्षि कहलाते हैं । वे स्वर्ग के देवों में सर्वाधिक ज्ञानी होते हैं । वे तीर्थंकरो के अभिनिष्कमण कल्याणक के सिवा अन्य किसी कल्याणक में नहीं आते हैं और वे सभी एक भवावतारि होते हैं ।
भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, और कल्पवासी इन सभी प्रकार के देवों का औपपातिक जन्म होता है ।
तमस्काय जम्बूद्वीप से तिर्छ असंख्यात द्वीप-समुद्रों के लांघने पर अरुणवर-द्वीप की बाहरी वेदिका के अन्त से अरुणोद समुद्र में बयालीस हजार योजन अवगाहन करके जल के ऊपरी भाग में एक प्रदेश की श्रेणी वाला तमस्काय (अन्धकारपिण्ड) आरम्भ होता है । पुनः वह १७२१ योजन ऊपर उठकर विस्तार को प्राप्त होता हुआ सौधर्मादि चार कल्पों को आवृत करके पाँचवें ब्रह्मलोक में रिष्ट विमान को प्राप्त होकर समाप्त होता है । इस तमस्काय का आकार नीचे मल्लकमूल और मुर्गे के पिंजरे के समान है। इसके लोकतमिस्त्र आदि १३ नाम हैं और इसकी आठ कृष्णराजियाँ बतलायी गयी हैं ।
सिद्धलोक उर्ध्वलोक के सबसे अन्त में स्थित सर्वार्थसिद्ध विमान के अग्रभाग से बारह योजन ऊपर ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी है । वह ४५ लाख योजन विस्तृत गोल-आकार वाली है। यह बीच में आठ योजन मोटी है, फिर क्रम से घटती हुई सबसे अन्तिम प्रदेशों में मक्खी के पंख से भी पतली हो गई है । दिगंबर मतानुसार इषत्प्राग्भार पृथ्वी लोकान्त तक विस्तृत होने से एक रज्जु चौड़ी और
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