________________
२३
८) अंतराय कर्म :- यह कर्म भंडारी के समान है । अनन्त वीर्यरूपी शक्ति को रोकनेवाला बादल है अंतराय कर्म । जिससे कृपणता, अलाभ, दरिद्रता, पराधीनता,(भोगोपभोग में) दुर्बलता आदि की प्राप्ति होती है ।
इन आठों कर्मों का आत्मा के साथ संबंध अनादि काल से है । जैन मतानुसार यह जीव जैसा कर्म करता है, उसे उसका फल भोगना पड़ता है । कर्म के उस विपाक को भोगने के लिये इसे नया जन्म धारण करना पड़ता है। यह है पुनर्जन्म का सिद्धान्त । पुर्नजन्म :
जैन चिन्तको ने कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति के साथ-साथ आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है । जैन विचारणा यह स्वीकार करती है कि प्राणियों में क्षमता एवं अवसरों की सुविधा आदि का जन्मना नैसर्गिक वैषम्य है, उसका कारण प्राणी के अपने ही पूर्व-जन्मों के कृत्य हैं । संक्षेप में वंशानुगत एवं नैसर्गिक वैषम्य पूर्व-जन्मों के शुभाशुभ कृत्यों का फल है। यही नहीं, वरन् अनुकूल एवं प्रतिकूल परिवेश की उपलब्धि भी शुभाशुभ कृत्यों का फल है । स्थानांग सूत्र में भूत, वर्तमान और भावी जन्मों में शुभाशुभ कर्मों के फल-संबंध की दृष्टि से आठ विकल्प माने गये हैं१. वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में ही फल देवें । २. वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म भावी जन्मों के फल देवें । ३. भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें । ४. भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें । ५. वर्तमान जन्म के शुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें । ६. वर्तमान जन्म के शुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें ।। ७. भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें । ८. भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें ।२९
इस प्रकार जैन दर्शन में वर्तमान जीवन का संबन्ध भूतकालीन एवं भावी जन्मों से माना गया है । जैन दर्शन के अनुसार चार प्रकार की गतियाँ है-(१) देव (स्वर्गीय जीवन), (२) मनुष्य; (३) तिर्यंच (वनस्पतिक एवं पशु जीवन)
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org