________________
प्रकरण २
जैन मान्यतानुसार लोक (विश्व) स्वरूप
समग्र लोक का संक्षिप्त वर्णन :
___ पुण्य और पाप कर्म करके जीव इस संसार में परिभ्रमण करता है । तदनुसार गति दो प्रकार की है। शुभ गति और अशुभ गति । पुण्य कर्म करने से शुभ गति प्राप्त होती है, और पाप कर्म करने से अशुभ गति में जीव उत्पन्न होता है । देवगति और मनुष्यगति ये शुभ गति है, तो नरकगति और तिर्यंचगति ये अशुभ गति हैं । इन में से मनुष्यगति तथा तीर्यंच गति हमें प्रत्यक्ष है, किन्तु देवगति याने स्वर्ग तथा नरकगति याने नरक हमें प्रत्यक्ष नहीं है । जैन मान्यतानुसार इन चारों गति के जीवों का समावेश लोक में होता है। लोक क्या है ? कितने प्रमाण का है ? इस का वर्णन विस्तार से अब करेगें ।।
___इस अनन्त आकाश में प्रतिदिन होने वाले चंद्र-सूर्य के उदयास्त को तथा झिलमिलाते अनगिनत तारों को देखकर, जब कभी मानव ने चिंतन किया तो उसके मन में विश्व के विस्तार की परिकल्पना जागृत हुई । वह सोचने लगा कि नीचे ऊपर और दाये-बांये यह लोक (विश्व) कितनी दूरी तक फैला हुआ है ? यह असीम, अनंत है या ससीम-सान्त है ?
जैनागमों में लोक दो प्रकार का मान्य किया है-लोक और अलोक । उसमें लोक चौदह रज्जु प्रमाण है । 'रज्जु' विस्तारसूचक जैन पारिभाषिक शब्द है । इसके अतिरिक्त सर्वत्र अलोक है ।
लोक शब्द कैसे बना ?
लोक का वर्णन ___ 'लुक्' धातु से लोक शब्द निष्पन्न होता है । 'लुक्' घातु का अर्थ देखना होता है । जहाँ जीव पुद्गलादि द्रव्य दिखाई देते हैं, वह लोक हैं ।'
__ अनन्त आकाश के ठीक बीचों-बीच यह हमारा लोक अवस्थित है । जो नीचे पलयंक के सदृश, मध्य में वज्र के समान और ऊपर खड़े मृदंग के तुल्य है । इस प्रकार यह लोक नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊर्ध्वमुख मृदंग
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org