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के समान हैं । यह सब मिलकर लोक का आकार पुरुष के आकार का सा हो जाता है । जैसे कोई पुरुष अपने दोनों पैरों को फैलाकर और दोनों हाथों को कटि(कमर) पर रखकर खड़ा हो, तो उसका जैसा आकार होता है ठीक इसी प्रकार लोक का आकार है । अथवा मृदंग के ऊपर पूरे मृदंग को रखने पर जैसा आकार होता है, वैसा आकार लोक का समझना चाहिए । कटि के नीचे के भाग को अधो-लोक, ऊपर के भाग को उर्ध्वलोक और कटि-स्थानीय भाग को मध्यलोक कहते हैं । इस तीन विभाग वाले लोक को लोकाकाश कहा जाता है, क्योंकि इसके भीतर ही जीव-पुद्गलादि सभी चेतन और अचेतन द्रव्य पाये जाते हैं । इस लोकाकाश के सर्व और प्रसरे अनन्त आकाश को अलोकाकाश कहते हैं, क्योंकि इस में केवल आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई चेतन या अचेतन द्रव्य नहीं पाया जाता है ।
सामान्य लोक-स्वरूप लोकाकाश की ऊँचाई १४ रज्जु है । यह अधोलोक में सबसे नीचे अर्थात् तल भाग में सात रज्जु चौडा है । उस से ऊपर अनुक्रम से कम होता हुआ सात रज्जु ऊपर आ जाने पर एक रज्जु बराबर चौड़ा रहता है । तत्पश्चात् ऊपर चौड़ा होता हुआ जह ३॥ रज्जु ऊपर ऊठे तब पाँच रज्जु चौड़ा होता है। उसके बाद ऊपर कम होता हुआ क्रमशः साढे तीन रज्जु पर अंत में एक राज्जु चौड़ा रहता है । इस प्रकार संपूर्ण लोक नीचे से ऊपर तक चौदह रज्जु लम्बा है । घनाकार के नाप से ३४३ घन रज्जु प्रमाण है । वह संपूर्ण लोक के विषम स्थान को सम करने से सात रज्जु लम्बा, सात रज्जु चौड़ा और सात रज्जु ऊँचा, और उसका घन करने से ७ x ७ x ७ = ३४३ रज्जु होता है ।
जिस प्रकार घर के मध्य भाग में स्तंभ हो, ठीक उसी प्रकार लोक के मध्य भाग में एक रज्जु चौड़ा और चौदह रज्जु लम्बा स्तंभ जैसा आकाश विभाग है, जौ "वसनाडी" कहलाता है । उस त्रसनाडी में त्रस एवं स्थावर दोनों प्रकार के जीव हैं, जब कि त्रस नाडी के बाहर लोकाकाश में केबल एकेन्द्रिय स्थावर जीव ही होते हैं ।
यह समस्त लोक सर्व और घनोदधि, घनवात और तनुवात इन तीन वलयों से वेष्टित है । अर्थात् इनके आधार पर अवस्थित है। प्रथम वलय अधिक सघन है, अतः इसे घनोदधि कहते है । दूसरा वलय तीसरे वलय की अपेक्षा
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