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नरक में जाने के प्रायः चार कारण है :
१. महारम्भ २. महापरिग्रह ३. पञ्चेन्द्रियवध एवं ४. मांस भक्षण । अति पाप करने से जीव नरक गति में जाता है । वहाँ वह कुंभी में उत्पन्न होता है । वहाँ क्षेत्र वेदना, परमाधामीकृत वेदना, परस्पर कृत वेदना आदि अपरंपार होती है ! करोडों प्रकार के रोग होते हैं, जो जीव को निरंतर भोगने-सहने पडते हैं ।
नैरयिक जीव नरक में उत्पन्न होते ही मनुष्य लोक में आना चाहते हैं, किन्तु नरक में भोग्य कर्मों के क्षीण हुए बिना वहाँ से आ नहीं सकते । नरकावासों के परिपार्श्व में जो पृथ्वीकायकि अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव हैं वे भी महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव एवं महावेदना वाले होते हैं । चार-सौ पाँच सौ योजन पर्यन्त नरकलोक नैरयिक जीवों से ठसाठस भरा हुआ होता है ।३२
___ नरकलोक के नैरयिक जीवों की देहमान उत्कृष्ट ५०० धनुष्य और जघन्य ७॥ धनुष्य ६ अंगुल होता है । नारक जीवों का आयुष्यमान जघन्य दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट ३३ सागरोपम का है ।३३ नरक गति के १४ भेद है । तिर्यंच गति :
तिर्यञ्च गति ही मात्र एक ऐसी गति है, जिसमें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव विद्यमान हैं । काया की दृष्टि से भी पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक छहों काया के जीव तिर्यंञ्चगति में होते हैं । संख्या की दृष्टि से भी इसमें सबसे अधिक (अनन्त) जीव हैं । तिर्यञ्च गति के जीवों का जो चारों गतियों में संकेत है, वह इस प्रकार कि वे चारो गतियों से आ सकते हैं । जीवों की जितनी विविधता तिर्यञ्चगति में है, उतनी अन्य किसी गति में नहीं हैं, । इस प्रकार तिर्यय के ४८ भेद है । स्थावर एकेन्द्रिय के २२ भेद, विकलेन्द्रिय के ६ भेद, पंचेन्द्रिय तिर्यंच के २० भेद मिलाकर कुल ४८ भेद होते है । . मनुष्य गति :
__ मनुष्य दो प्रकार के होते हैं -१. गर्भज एवं २. सम्मूच्छिम । सम्मूच्छिम मनुष्य तो अत्यन्त अविकसित होता है तथा चौथी पर्याप्ति पूर्ण करने के पूर्व ही मरण को प्राप्त हो जाता है । इसकी उत्पत्ति मल-मूत्र, श्लेष्म, वीर्य आदि १४ अशुचि स्थानों पर होती है । गर्भज मनुष्य भी तीन प्रकार के होते हैं-कर्मभूमि
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