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आगम :- सूत्रकृत, स्थानांग, समवाय तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नंदीसूत्र, अनुयोगदार है ।
बारहवें अंग दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग का अत्यन्त गहन, सूक्ष्म विस्तृत विवेचन है, जो आज प्राप्य नहीं है ।
चार अनुयोगों में भी द्रव्यानुयोग का सम्बन्ध तात्त्विक या दार्शनिक चितंन से है । इसको तीन भागों में विभाजन किया है- १) तत्त्व-मीमांसा २) ज्ञानमीमांसा और ३) आयार-मीमांसा ।
अब हम तत्त्व-मीमांसा में नवतत्त्व कौन से हैं उसका विवेचन करेंगे क्योंकि जैन धर्म के कर्मवाद के सिद्धांत के साथ स्वर्ग-नरक की मान्यता का संबंध है । जैन धर्म कर्म ओर पुनर्जन्म का पुरस्कर्ता है । जीव के कर्म अनुसार ही उसकी गति होती है, उसे मनुष्य, तीर्यंच, स्वर्ग या नरक भूमि में जन्म लेना पडता है। कर्मवाद का समावेश नव तत्त्व के विवेचन के अन्तर्गत हो जाता है । अतः हम यहाँ नव तत्त्व के विषय में संक्षिप्त विचारणा करेंगे ।
जैन धर्म में नव तत्त्व सम्पूर्ण विश्व में जितने भी पदार्थ हैं उन सब का नव तत्त्व में समावेश होता है। इनका संक्षिप्त स्वरूप सात, पांच, एवं दो तत्त्वों में भी होता है । उत्तराध्ययन सूत्र में इसका उल्लेख मिलता हैं—२७ ।
जीवाजीवा य बंधो य पुण्णो पावासवो तहा ।
संवर निर्जरा मोक्खो, संते ए तहिया नव ॥ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नव तत्त्व हैं। १) जीव :
जो ज्ञान-दर्शन के रूप उपयोग को ग्रहण करता है अथवा चेतन लक्षण युक्त होता है, वह जीव कहलाता है । २) अजीव :
जो चैतन्य रहित, जड़-पुद्गल-आकाशादि द्रव्य उसे अजीव कहते है ।
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