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भले प्रकार वंदन पूजन करने से संपूर्ण गुणवान् बना देती है। मूर्ति का अवलंबन शास्त्रोक्त होने से, उसका सेवन व नमस्कार करना योग्य है। वास्तव में उपचरितनयानुसार परमेश्वर के विद्यमान न रहते भी उनकी तदाकार प्रशान्तस्वरूप मूर्ति को परमेश्वर के समान ही मानना निर्दोष मालूम होता है। इससे उनकी वन्दन-पूजन - रूप आज्ञा के आराधन करने से मानसिक भावना शुद्ध होती है, और शुद्ध भावना से शुभ फल प्राप्त होता है।
शास्त्रकारों ने ध्यान के विषय में लिखा है कि वीतराग भगवान या उपचार से उनकी तदाकार प्रतिमा का ध्यान करने से आत्मा वीतराग बनता है, और सरागी का ध्यान करने से सरागी बनता है। क्योंकि - 'यथा सङ्गो तथा रङ्गः' जैसा सङ्ग (आलम्बन) प्राप्त होता है, वैसा ही आत्मीय भाव उठता है और उसी के अनुसार उसका आचरण या स्वभाव बना रहता है। अत एव परमेश्वर की वन्दन पूजन रूप आज्ञा को आराधन करने वाला पुरुष तीर्थनाथ के पद को प्राप्त करता है। कहा भी है कि
वीतरागं स्मरन्
योगी,
वीतरागत्वमश्नुते । ईलिका भ्रमरीं भीता, ध्यायन्ती भ्रमरी यथा । । ३ । ।
जिस प्रकार भ्रमरी से मरती हुई ईलिका, भ्रमरी के ध्यान करने से भ्रमरी के समान बन जाती है; उसी प्रकार यह आत्मा वीतराग (तीर्थनाथ) का ध्यान करता हुआ वीतराग पद को धारण करता है। इससे हितेच्छु पुरुषों को परहितरत, मोक्षमार्ग दाता, इन्द्रों से पूजित, त्रिभुवनजनहितवाञ्छक और सामान्य केवल - ज्ञानियों के नायक तीर्थनाथ का वन्दन पूजन अवश्य करना चाहिए । क्योंकि—सब उत्तम मङ्गलों का मुख्य कारण एक आज्ञापूर्वक तीर्थनाथ के चरणयुगल का वन्दन पूजन ही है ।
नमस्कार करने का मुख्य हेतु यह है कि — निर्विघ्न ग्रन्थसमाप्ति और सर्वत्र शान्ति प्रचार हो अर्थात् 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' इस उक्ति की निरर्थकता हो, किन्तु यह बात तभी हो सकती है कि—जब आज्ञा की आराधनापूर्वक भाव नमन, या पूजन किया गया हो ।
सब कार्यों की साधिका एक जिनाज्ञा ही है, क्योंकि शास्त्रों में जगह-जगह पर 'आणामूलो धम्मो' यह निर्विवाद वचन लिखा है । १६ श्री गुणानुरागकुलक