________________
मात्सर्यदुर्गुण ही सर्वत्र पराभव का हेतु है
"सोऊण गुणुकरिसं, अन्नस्स करेसि मच्छरं जइ वि।
ता नूणं संसारे, पराभवं सहसि सव्वत्थ ||६|| शब्दार्थ-(जइवि) यद्यपि-जो तूं (अन्नस्स) दूसरे के (गुणुक्करिसं) गुणों के उत्कर्ष को (सोऊण) सुन करके (मच्छरं) मात्सर्यभाव को (करेसि) धारण करता है (ता) तिससे (नूणं) निश्चय से (संसारे) संसार में (सव्वत्थ) सब जगह (पराभवं) पराभव को (सहसि) सहन करता है।।६||
भावार्थ- यदि गुणवानों के उत्तम गुणों को देख वा सुन कर अपने मन में मात्सर्यभाव को अवकाश देगा, तो तूं सब जगह संसार में पराभव (निन्द्यअवस्था) को सहेगा अर्थात् —प्राप्त होगा।
विवेचन–महात्माओं और गुणवान पुरुषों की समृद्धि, विद्वत्ता, योग्यता और यशः कीर्ति अथवा अर्चना (पूजा) को देख या सुन कर अपने हृदय में आकुलित (दुःखित) होने का नाम 'मात्सर्य' है। संसार में मात्सर्य (ईर्षालुस्वभाव) ऐसा निन्दनीय दुर्गुण है, जो समग्र गुणों और उन्नतिमार्गों पर पानी फेर देता है, और सब जगह वैर विरोध बढ़ा कर निन्द्य अवस्था पर पहुँचा देता है।
सब दर्शनकारों का यही मन्तव्य है कि भूमण्डल स्थित सम्पूर्ण विद्याओं और कलाओं को सीख कर ऐहिक (इस लोक सम्बन्धि) योग्यताओं को प्राप्त कर लो, परन्तु जब तक मुख से दूसरों की निन्दा आन्तरिक मात्सर्य और दोषारोप आदि का अश्लील (लज्जाजनक) स्वभाव न मिटेगा तो वे ऐहिक योग्यताएँ सर्प की तरह भयङ्कर और पलालपुञ्ज की तरह असार (व्यर्थ) ही हैं। यहाँ पर विचार करने से स्पष्ट जान पड़ता है कि मत्सरी लोगों में जो ज्ञान, ध्यान, कला, आदि सद्गुण देखे जाते हैं वे केवल बाह्याडम्बर मात्र, निस्सार और अज्ञानरूप ही हैं, क्योंकि-मात्सर्य–युक्त मनुष्य * श्रुत्वा गुणोत्कर्ष-मन्यस्य करोषि मत्सरं यद्यपि। ततो नूनं संसारे, पराभवं सहसि सर्वत्र।।६||
४२ श्री गुणानुरागकुलक