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चित्रकला को सीखे बिना चित्रादि का बनाना और व्यापारादिभावनिपुर्ण हुए बिना व्यापार वगैरह का करना शोभाजनक और फलदायक नहीं होता, क्योंकि - जो जिस कला में निपुर्णता रखता होगा वही उसका फल प्राप्त कर सकता है, दूसरा नहीं । उसी तरह धार्मिक क्रियाओं में शोभा और उत्तम फल को वही पा सकता है जो कि उन क्रियाओं के यथार्थ उद्देश्यों को समझता है। इससे सभी अनुष्ठान ज्ञानपूर्वक उपयुक्त होने से महाफल प्रद है । बहुश्रुत हरिभद्रसूरिजी महाराज ने लिखा है कि
क्रियाहीनस्य यद्ज्ञानं ज्ञानहीनस्य या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव ।।१।।
भावार्थ- क्रियाहीन जो ज्ञान, और ज्ञानहीन जो क्रिया, इन दोनों के परस्पर सूर्य और खद्योत (पतंगिया) जितना अन्तर जानना चाहिए। ज्ञान तो सूर्य के समान है, और क्रिया खद्योत के समान है। क्रिया देश से आराधक, और ज्ञान सर्वाराधक है, ज्ञानरहित क्रिया करने वाला देश से आराधक है, ऐसा 'भगवती' में कहा है।
ज्ञानसहित क्रिया और क्रियासंयुत ज्ञान यही आत्मशुद्धि होने का और तत्वज्ञ बनने का मुख्य कारण है, इस प्रकार ज्ञान और क्रिया के सेवन से अन्तरङ्ग शत्रुओं का अभाव होकर महोत्तम पद प्राप्त होता है और महोत्तम शान्तगुण प्रगट हो कर सर्वमतावलम्बियों के ऊपर समभाव होता है। ज्ञान संपादन और क्रिया करने का प्रयोजन केवल इतना ही है कि अपनी आत्मा कषाय शत्रुओं से मुक्त हो सब के साथ मैत्रीभाव रक्खे किन्तु किसी के दोषों पर न ताके ।
क्रिया का या व्याख्यानादि का बाह्याडम्बर दिखाने मात्र से ही सत्तत्त्व की प्राप्ती नहीं हो सकती, जब तक उपशम भाव नहीं हुआ तब तक सब ढोंगमात्र है और जहां ढोंग है वहाँ मुक्तिमार्ग नहीं है। अत एव प्रत्येक धर्मानुष्ठानों को सफल करने के लिए प्रथम ज्ञान संपादन तदनन्तर क्रिया ( शान्तगुण) में लवलीन होना चाहिए । यहाँ पर ज्ञान और अज्ञान का इतना स्वरूप दिखाने का हेतु यही है कि लोग अज्ञान - जन्य दोषों को ज्ञान से समझ कर और परदोष प्रदर्शन और निन्दा करने का लाभाऽलाभ जान कर महत्व प्राप्त करने के लिए अनीतिमय दोषों का सर्वथा त्याग करें। और जिनेन्द्र भगवान की उत्तम शिक्षाओं का आचरण करें।
श्री गुणानुरागकुलक 903