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नयनमपरमेतद् विश्वतत्त्वप्रकाशे,
करणहरिणबन्धे वागुरा ज्ञानमेव ।।१।। भावार्थ अवरूप वृक्ष को समूल उखाड़ने में मदोन्मत्त हस्तीसमान, मूर्खतारूप अन्धकार को नाश करने में सूर्य के सदृश, समस्त जगत के तत्त्वों को प्रकाश करने में तीसरे नेत्र के तुल्य, और इन्द्रियरूप हरिणों को वश करने में पाश-जाल की तुलना रखने वाला एक ज्ञान ही है।
अज्ञानी परापवाद, मद, मात्सर्यादि दोषों में पड़ कर अधमता को प्राप्त करता है, और ज्ञानी सद्मार्ग का उपदेश दे कर और राग द्वेषादि दोषों को हटा कर उत्तमता प्राप्त करता है। सांसारिक और धार्मिक योजनाओं में विद्वान पुरुष जितना महत्व और यश प्राप्त करता है उतना मूर्ख हजारों रुपया खर्चकर के भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसी से महर्षियों ने सद्ज्ञान को प्राप्त करने की परमावश्यकता बतलायी है।
ज्ञान बिना जीवादि पदार्थों का स्वरूप सामान्य तथा विशेष रूप से नहीं जाना जा सकता, और जीवादि स्वरूप जाने बिना दयाधर्म का पालन भले प्रकार नहीं हो सकता। 'श्रीदशवैकालिकसूत्र' में श्रीशय्यंभवसूरिजी महाराज ने लिखा है कि-'पढमं नाणं तओ दया' प्रथम जीवादि पदार्थों का ज्ञान करो, क्योंकि परिपूर्ण ज्ञान हुए बिना यथार्थ दयादानादि धर्म व्यवहार नहीं सध सकता। जितना ज्ञान होगा उतनी ही शुद्ध धर्म में प्रवृत्ति अधिक होगी, ज्ञान के बिना उपदेशादि का देना और तपस्यादि करना सार्थक नहीं है। सूत्रकारों ने तो यहाँ तक लिखा है कि वस्तुतत्त्व को जाने बिना और वचनविभक्तिकुशल हुए बिना जितना धर्मोपदेश देना है वह असत्य मिश्रित होने से भवभ्रमण का ही हेतु है, इससे ज्ञानसहित धर्मोपदेशादि करना और क्रियानुष्ठान करना सफल और अनन्त सुखदायक है।
बहुत से अज्ञ जीव क्रियाडम्बर पर ही रंजित हो समझते हैं कि बस दया पालना, तपस्या वगैरह करना, यही मोक्षमार्ग है परन्तु शान्तस्वभाव से विचार करना चाहिये कि अकेली क्रिया उसका यथार्थ स्वरूप जाने बिना उचित फलदायक नहीं हो सकती। जैसे शिल्प कला को जाने बिना गृह, मन्दिर आदि बनाना,
१०२ श्री गुणानुरागकुलक