Book Title: Gunanuragkulak
Author(s): Jinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashak Trust

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Page 179
________________ भावार्थ- - स्वगच्छ या परगच्छ में जो वैराग्यवान् और बहुश्रुत (विद्वान् ) साधु हों उनके गुणों पर मत्सरी बनकर अनुराग को मत हटाओ । विवेचन – स्वगच्छ या परगच्छ में जो-जो वैराग्यवान् बहुश्रुत और क्रियापात्र साधु हैं उनके साथ सहानुभूति रखने से ही सामाजिक उन्नति भले प्रकार हो सकती है। जो लोग गच्छसम्बन्धी छोटी-छोटी बातों पर वाद विवाद चलाकर राग द्वेष का पोषण करते हैं और एक दूसरे को अवाच्य शब्द कहकर या लिखकर संतुष्ट होना चाहते हैं वे वास्तव में धार्मिक उन्नति की सघन नीवों का सत्यानाश करते हैं। जब तक गुणीजनों के गुणों का बहुमान न किया जायगा, अर्थात् संकुचित विचारों को छोड़ कर यथाशक्ति संप्रदायान्तर के गुणिजनों का गुणानुवाद करने का उत्साह न रक्खा जायगा, तब तक उस प्रेम के लिये प्रयत्न करना होगा, जो पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का समर्पण करता है। 'हम लोगों के परस्पर जितने व्यवहार हैं, आईने में मुँह देखने के बराबर हैं। जैसे-अपने को सामने रख कर हँसोगे तो प्रतिबिम्ब हँसेगा, और रोओगे तो प्रतिबिम्ब रोवेगा। वैसे ही तुम किसी का उपकार करोगे तो तुम्हारा भी कोई उपकार करेगा, और तुम किसी की हानि करोगे तो बदले में तुम्हें भी हानि भुगतनी पड़ेगी । अर्थात् प्रेम करने पर प्रेम, शत्रुता करने पर शत्रुता प्राप्त होगी। किसी को हृदय दोगे तो हृदय पाओगे, और कपट के बदले कपट मिलेगा। तुम हँसकर बोलोगे तो तुम्हारे साथ संसार के लोग हँसकर बोलेंगे और तुम मुँह छिपाओगे तो संसार के लोग तुम से भी मुँह छिपावेंगे । दूसरे को सुखी करोगे तो आप भी सुखी होओगे, और दूसरे को दुःख दोगे तो स्वयं दुःख पाओगे। दूसरे का तुम सम्मान करोगे तो तुम्हारा सम्मान भी लोग करेंगे और दूसरे का अपमान करोगे, तो तुम्हें भी अपमानित होना पड़ेगा। सारांश यह कि जैसा करोगे वैसा ही फल पाओगे ।' (चरित्रगठन पृष्ठ ४४ ) आजकल के विद्वानों में प्रायः परस्पर सहानुभूति नहीं देखी जाती, यदि कोई विद्वान साधु समाज के सुधार करने में प्रवृत्त है और शिक्षा के क्षेत्र में यथावकाश भाग ले रहा है, तो कई एक साधु श्री गुणानुरागकुलक १७३

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