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पुरुष चाहे किसी मत के आश्रित क्यों न हो, परन्तु उसमें मार्गानुसारी आदि धार्मिक गुण प्रशंसा के लायक है। पूर्वकालीन इतिहास और जैनशास्त्रों के निरीक्षण करने से यह स्पष्ट मालूम होता है कि पूर्व समय के विद्वान गुणानुरागी अधिक होते थे, वे सांप्रदायिक आग्रहों में निमग्न नहीं थे, जैसे वर्तमान समय में पाये जाते हैं। हरिभद्र और हेमचन्द्र जैसे विद्वत्समाज शिरोमणि आचार्यों ने स्वनिर्मित ग्रन्थों में भी अनेक जगह 'तथा चोक्तं महात्मना व्यासेन' 'तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः' 'भगवता महाभाष्यकारेणाव स्थापितम्' इत्यादि शब्दों द्वारा पतञ्जलि और वेदव्यास आदि वैदिकाचार्यों की प्रशंसा की है। वास्तव में विद्वान लोग सत्यग्राही होते हैं, उन्हें जहाँ सत्य दीख पड़ता है उसे वे आदर और बहुमान पूर्वक ग्रहण कर लेते हैं। और जो जितने अंश में प्रशस्य गुणवाला होता है, उतने अंश में उसकी आदर प्रशंसा किया करते हैं। पूर्वाचार्यों के प्रखर पाण्डित्य से आज समस्त भारत आश्चर्यान्वित हो रहा है, यह पाण्डित्य उनमें गुणानुराग से ही प्राप्त हुआ था। जो लोग दोषदृष्टि को छोड़कर गुणानुरागी हो जाते हैं उनकी मानसिक शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि सांसारिक आपत्तियाँ उसे बिलकुल नहीं सता सकती।
_ 'शरीर के रोग दूर करने के लिए, आनन्दप्रद और सुखमय विचार से अधिक लाभकारी औषधि कोई नहीं है। शोक और क्लेश को हटाने के लिए नेक विचारों से अधिक प्रभावशाली कोई उपाय नहीं है। शत्रुता, और द्वेष-द्रोह के विचारों में निरन्तर रहने से मनुष्य अपने को स्वरचित कारागार में बन्दी कर देता है, परन्तु जो मनुष्य जगत का भला देखता है, तथा जगत में सबों से प्रसन्न है और धैर्य से सबों में भले गुणों को देखने का यत्न करता है, वह निःसन्देह अपने लिये स्वर्ग के पट खोलता है। जो प्रत्येक जन्तु से प्रेम और शान्तभाव के साथ व्यवहार करता है, उनको निःसन्देह प्रेम और शान्ति का कोश मिलेगा। (जेम्सएलन)
_ 'दूसरे के साथ तुम वैसा ही व्यवहार करो जैसा अपने लिये अच्छा समझो। अर्थात् अगर तुम किसी से मीठी बात बोलो, और किसी की गाली नहीं सुनना चाहते हो तो किसी को गाली मत दो।'
श्री गुणानुरागकुलक १७१