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हर एक पुरुष या स्त्री को इतना अवश्य जान लेना चाहिये कि गुणरत्न विभूषित पुरुषों का जितना बहुमान किया जाय, वह शुद्धमन से करना चाहिये। क्योंकि मनः शुद्धि के बिना आत्मबल का साधन भ प्रकार नहीं हो सकता, चाहे जितना तप, जप, सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा, यात्रा, देव-दर्शन, केशलुंचन, मौनव्रत आदि धार्मिक कार्य किये जाय, किन्तु उनका वास्तविक फल मनःशुद्धि हुए बिना नहीं मिल सकता जिस प्रकार शारीरिक बल बढ़ाने के लिये बलवर्द्धक पदार्थ उदरस्थित मल को साफ किये बिना कार्यकारी नहीं होते। उसी प्रकार मन की मलिनता दूर किये विना आत्मबल की सफलता नहीं होती । कहावत है कि - ' मन चङ्गा तो कथरोट में गङ्गा । '
वास्तव में महात्मा और आदर्श पुरुष बनना कोई दैवी घटना और किसी दूसरे की कृपा का फल है, किन्तु वह अपने ही विचारों के ठीक, ठीक पथ पर ले चलने के लिये किये गये निरन्तर प्रयत्न का स्वाभाविक फल है । महान् और आदरणीय विचारों को हृदय स्थान देने से ही कोई, कोई महात्मा हुए हैं, इसी तरह दुष्ट और राक्षस भी अपने ही दुष्ट और राक्षसी विचारों के फल हैं।
ऐसा समझकर भवान्तर में सद्गुणों की सुलभता होने के लिये मलिन विचारों को हटाकर शुद्ध मन से गुणी पुरुषों का बहुमान करने में प्रयत्नशील रहना चाहिये । और उत्तमता की सीढ़ी पर जितना चाहिये उतना चलते न बने तो धीरे-धीरे आगे बढ़ने का उत्साह रखना चाहिये। क्योंकि जो गुणी होने का प्रयत्न करता रहता है वह किसी दिन गुणी बनेगा ही ।
उपसंहार और गुणानुराग का फल* एयं गुणाणुरायं,
सम्मं जो धरइ धरणिमज्जमि । सिरिसोमसुंदरपयं,
पावइ सव्वनमणिज्जं । । २८ । ।
शब्दार्थ — ( धरणिमज्जमि) पृथ्वी पर रहकर (जो ) जो पुरुष (सम्म) अच्छी तरह (एयं) इस प्रकार के ( गुणाणुरायं) गुणानुराग को
* एतं गुणाणुरागं सम्यग यो धारयति धरणिमध्ये | श्रीसोमसुन्दरपदं, प्राप्नोति
१८४ श्री गुणानुरागकुलक
सर्वनमनीयम् ||२८||