Book Title: Gunanuragkulak
Author(s): Jinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashak Trust

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Page 191
________________ ( धरइ) धारण करता है वह (सव्वनमणिज्जं ) सब के वन्दन करने योग्य (सिरिसोमसुंदरपयं) श्रीसोमसुन्दर - तीर्थङ्कर पद को (पावइ) पाता है। भावार्थ- जो पुरुष गुणानुराग को उत्तम प्रकार से अपने हृदय में धारण करता है, वह सर्वनमनीय सुशोभ्य श्रीतीर्थङ्कर पद को पाता है । विवेचन - भले विचार और कार्य सर्वदा भलाई ही उत्पन्न करते हैं, बुरे विचार और कार्य सर्वदा बुराई ही उत्पन्न करते हैं। इसका अर्थ यह है कि गेहूँ का बीज गेहूँ उत्पन्न करता है और जौ का जौ । मनुष्य को यह नियम अच्छी तरह समझना चाहिये और तदनुसार ही कार्य में प्रवृत्त होना चाहिये। परन्तु संसार में विरले ही इस नियम को समझते होंगे, इसलिये उन का जीवन सर्वदा असफल ही होता है । (मनुष्य विचार पृष्ठ १६) । जो भले विचारों को हृदयङ्गम कर गुणानुराग रखते हैं, और उत्तमपथगामी बन गुणोपार्जन करने में लगे रहते हैं उन्हें उपकार परायण उत्तम पद मिलने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । संसार में आदर्श पुरुष बन जाना यह गुणानुराग का ही प्रभाव है। हर एक व्यक्ति गुण से महत्वशाली बन सकता है, जिसमें गुण और गुणानुराग नहीं है वह उत्तम बनने के लिये अयोग्य है । निन्दा करने से गुण और पुण्य दोनों का नाश होता है और गुणानुराग से वृद्धि होती है। परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, लोलुपता, विषय और कषाय इन पाँच बातों से साधुधर्म भी नष्ट होता है तो दूसरे गुण नष्ट हों इसमें आश्चर्य ही क्या है। जिस प्रकार एक ही सूर्य सारे संसार में प्रकाश करता है और चन्द्रमा अपनी अमृत किरणों से सब को शीतलता देता है उसी प्रकार गुणानुरागी पुरुष अकेला ही अपने ईश्वरीय प्रेम से समस्त पृथ्वी मंडल को अपने वश में कर सकता है और दूसरों को भी उत्तमपथ पर पहुँचा सकता है। अतएव हर एक मनुष्य को चाहिये कि अपने स्वभाव को गुणानुरागी बनावें और आगे लिखी हुई शिक्षाओं को अपने हृदय में धारण करने का प्रयत्न करें। श्री गुणानुरागकुलक १८५

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