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लेता है अपनी आत्मिक शक्तियों का जानने वाला स्वामी बन जाता है और उन शक्तियों को अन्य कामों में भी ला सकता है।
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जो मनुष्य उक्त शिक्षाओं को मनन कर अपने हृदय में धारण करता है अथवा इन गुणों के जो धारक हैं उन पर अनुराग रखता है उसे ग्रन्थकार के कथनानुसार 'श्रीसोमसुन्दरपद' अर्थात् तीर्थङ्कर पद प्राप्त होता है। तीर्थङ्करों की क्षमा और मैत्री सर्वोत्कृष्ट होती है, उनकी हार्दिक भावना सब जीवों को शासन-रसिक बनाने की रहती है, उनके उपदेश में निष्पक्षपात और सद्गुणों का मुख्य सिद्धान्त रहता है। शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि
सव्वं नाणुन्नायं सव्वनिसेहो य पवयणे नत्थि ।
आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखि व्व वाणिआ । । १ । ।
भावार्थ तीर्थङ्करों के प्रवचन में सब बात का निषेध अथवा आज्ञा नहीं है किन्तु लाभाकांक्षी वणिक की तरह लाभ और अलाभ की तुलना करे ऐसी आज्ञा है। अर्थात् जिस प्रकार वणिक लाभाऽलाभ विचार कर जिसमें अधिक लाभ जान पड़ता है उसमें प्रवृत्ति रहता है उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्यों को हर एक कार्य करते समय लाभालाभ का विचार कर लेना चाहिए, ऐसी तीर्थङ्कर प्रवचन की आज्ञा है ।
तीर्थङ्करों का कथन राजा और रंक, मित्र और शत्रु, सब के लिये समानरूप से आदरणीय होता है। क्योंकि जहाँ सत्य, न्याय और दया का सिद्धान्त मुख्य है और जिसमें राग द्वेष और स्वार्थ पोषण नहीं है उसके उपदेश और कथन का कौन अनादर कर सकता है ?, तीर्थंकरों का उपदेश व सिद्धान्त प्रमाण तथा नयों से अवाधित, और स्याद्वाद से शोभित है अतएव वह सर्वमान्य होता है। इसी से गुणानुराग धारियों के लिए तीर्थङ्ककरपद प्राप्ति रूप फल बतलाया गया है ।
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अतएव जीवन को सुखमय बनाना हो, अनन्त अनुत्तर और निरावरण कैवल्य ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र को प्राप्त करना हो, भू मंडल में आदर्श और पूज्य पद की चाहना हो तो गुणानुराग धारण
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ये शिक्षायें चरित्र संगठन, मनुष्य विचार, और धर्मोपाख्यान आदि पुस्तकों से उद्धृत की गई हैं।
श्री गुणानुरागकुलक १६१