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करो। ईर्ष्या, द्वेष और कलह को अपनी आत्मा में स्थान मत दो, दोषदृष्टि का परित्याग करो और मैत्रीभाव से सब के साथ वर्ताव रक्खो ।
संसार के सब भोग और विभव नष्ट होने वाले हैं, इन्हीं भोग और विभव की आशाओं से जन्म मरण के चक्र में घूमना पड़ता है, आयुष्य, युवावस्था और चंचल लक्ष्मी देखते-देखते विलय हो जाती है, संसार में जो मिली हुई सामग्री है वह सब दुःखद है, सब चेष्टाएँ व्यर्थ हैं; ऐसा समझकर अपने मन को शुभयोगों के तरफ लगाओ
और भलाई, गुणसंग्रह और सुखकारक कार्यों में प्रयत्न करना सीखो। काम, क्रोध आदि शत्रुओं से अलग होकर आत्मीय प्रेम में मन लगाओ जिस से अविनाशी यश और सुख मिलेगा। यह मनुष्य जीवन किसी बड़े भारी पुण्ययोग से मिला है, अतएव जो कुछ प्रशस्यशुभकार्य कर लोगे वह साथ रहेगा।
वह्वयब्धिनन्देन्दु-मिते शुभेऽब्दे,
पौषे रवौ सिन्धुतिथौ यतीन्द्रैः। गुणानुरागस्य विवेचनोऽयं,
भूयात् कृतः साधुजनस्य प्रीत्यै।।१।।
।।इतिविष्तरेणः।।
१६२ श्री गुणानुरागकुलक