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_ 'आत्मिक उन्नति केवल पवित्र तथा महत्त्वाकांक्षाओं से होती है। वह मनुष्य जो निरन्तर उच्च और उन्नत विचारों में भ्रमण करता है, जिनके हृदय, आत्मा और मन में सर्वदा शुद्ध और निःस्वार्थ विचार भरे रहते हैं, निःसन्देह वह मध्याह्नस्थ सूर्य की भाँति जाज्वल्यमान, और पूर्णिमा के सुधाकर की भाँति माधुर्यपूर्ण होता है। वह ज्ञानवान् और सदाचारी होकर उस स्थान को प्राप्त करता है जहाँ से वह संसार में बड़ा प्रभावशाली प्रकाश डालता, और अमृत की वर्षा करता है।'
'बिना स्वार्थ त्याग के किसी प्रकार उन्नति और किसी तरह की सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। मनुष्य को सांसारिक विषयों में भी उसी अनुसार सफलता होगी। जिस अनुसार वह अपने विकारयुक्त, डाँवाडोल तथा गड़बड़ पाशविक विचारों का संहार करेगा और अपने मन को अपने प्रयत्नों और उपायों पर स्थिर करेगा और अपने प्रण को दृढ़ता प्रदान करता हुआ स्वावलम्बी होगा। वह अपने विचारों को जितना ही उन्नत करता है उतनी ही अधिक मनुष्यता, दृढ़ता और धर्मपरायणता प्राप्त करता है और उस की सफलता भी उतनी ही श्लाघनीय होती है। ऐसे श्रेष्ठ मनुष्य की उन्नति चिरकाल तक स्थिर रहती है और वह धन्य होता है।'
पाठक महोदय ! ऊपर जो विरुद्धगोष्ठी लिखी गई है उसका सार यही है कि मनुष्य मात्र की शोभा सद्गुणों से होती है, अतएव सद्गुणी बनने का उद्योग करते रहना चाहिये। यदि गुण संग्रह करने की असमर्थता हो तो शुद्ध मन से गुणवानों का भक्ति बहुमान करना चाहिये। ऐसा करने से भी भवान्तर में सद्गुण सुगमता से मिल सकेंगे। यह बात शास्त्रसिद्ध है कि जो भला या बुरा करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है अगर भलाई करेगा तो भलाई, और बुराई करेगा तो बुराई मिलेगी। कथानुयोग के ग्रन्थों को देखने से स्पष्ट जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति का जैसा आचरण होता है वैसा ही फल भवान्तर में, अथवा भवान्तर में किया हुआ इस भव में मिलता है। अर्थात् जो सदाचारी, गुणानुरागी और सुशील होगा वह भवान्तर में भी वैसा ही होगा, और दुराचारी, परापवादी होगा तो उसके अनुसार वह भवान्तर में भी दुराचार प्रिय होगा। क्योंकि सदाचारी और सदाचार प्रशंसक दोनों शुभगति, तथा दुराचारी और दुराचारप्रशंसक दोनों अशुभगति के भाजन हैं।
श्री गुणानुरागकुलक १८३