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दोष प्रकट करने से उनके हृदय पटल पर उपदेश का प्रभाव नहीं पड़ता । हीनाचारियों के प्रति करुणाभाव रखने से उनके अज्ञान नष्ट करने में प्रवृत्त होने की प्रेरणा होती है, अन्त में परिणाम यह होता है कि न्यूनाधिक रूप से उन हीनाचारियों के अनाचार मिटने लगते हैं, उनकी आत्मिक उत्क्रान्ति का मार्ग भी साफ हो जाता है, और इस भावना और सहायता को करने वाला मनुष्य भी उन्नत होता है। अतएव मधुरता और करुणाभाव पूर्वक ही प्रत्येक व्यक्ति को समझाने और सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। विकराल अथवा हिंसक पशु भी प्रेमदृष्टि और करुणाभाव से सुधर सकते हैं, तो अधम पुरुष क्यों नहीं सुधर सकते ?
ग्रन्थकार ने करुणाभाव पूर्वक समझाने की जो शिक्षा दी है, वह सर्व ग्राह्य है, वास्तव में उपदेशकों को उपदेश देने में, माता पिताओं को अपने बालक और बालिकाओं को समझाने में, गुरुजनों को अपने शिष्यवर्ग को सुधारने में, अध्यापकों को विद्यार्थिवर्ग को विद्या ग्रहण कराने में, और पति को अपनी स्त्री को सच्चरित्र सिखाने में उक्त महोत्तम शिक्षा का ही अनुकरण करना चाहिए। जो लोग शिक्षा देते समय कटुक और अवाच्य शब्दों का प्रयोग करते हैं उनकी शिक्षाओं का प्रभाव शिक्षकवर्ग पर किसी प्रकार नहीं पड़ सकता, न उनका सुधारा ही हो सकता है।
अधमजनों को उपदेश देने और समझाने से यदि उनको अप्रीति उत्पन्न होती हो तो माध्यस्थ्यभावना रखकर न तो उनकी प्रशंसा और न उनके दोष ही प्रकट करना चाहिए। अर्थात् अधमजनों की नीच प्रवृत्ति देखकर उनकी प्रवृत्तियों से न तो आनन्दित होना, और न उन पर द्वेष ही रखना चाहिए। कर्मों की गति अतिगहन है, पूर्ण पुण्य के बिना सत्यमार्ग पर श्रद्धा नहीं आ सकती। वसन्त ऋतु में सभी वनराजी प्रफुल्लित होती है, परन्तु करीर वृक्ष में पत्र नहीं लगते, दिन में सब कोई देखते हैं लेकिन घुग्घू नहीं देखता, और मेघ की धारा सर्वत्र पड़ती है किन्तु चातक पक्षी के मुख में नहीं पड़ती, इसमें दोष किसका है ? अतएव अधम जनों को उपदेश न लगे तो उनके कर्मों का दोष समझना चाहिए। ऐसा सम्यक्तया जानकर गुणिजनों को माध्यस्थ्यभावना पर आरूढ़ रह कर अधमजनों के दोष प्रकाशित करना उचित नहीं है ।
श्री गुणानुरागकुलक
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