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मात्सर्य से उनके कार्य में अनेक बाधायें पहुँचाने के लिये तैयार हो जाते हैं। कई एक तो ऐसे हैं कि अन्य गच्छ या संघाटक, अथवा अपने विचार से भिन्न विचार वाले जो गुणी साधु या आचार्य हैं उनकी व्यर्थ निन्दा कर अपने अमूल्य चारित्ररत्न को कलड़ित करते हैं। चाहिये तो ऐसा कि सभी गच्छवाले परस्पर मिलकर शासन की उन्नति करने में भाग लें, और यथासंभव एक दूसरे को सहायता दें, क्योंकि यथार्थ में सबका मुख्य उद्देश्य एक ही है।
जब से गच्छों के भयानक झगड़े खड़े हुए और एक दूसरे के कार्य में सहायता देना बन्द हुई, तब से विशाल जैन समाज का ह्रास होते-होते आज इना गिना समाज दृष्टिपथ में आ रहा है। यह बात हमें स्पष्टतया जान पड़ती है, कि आज कई एक वणिक जातियाँ ऐसी हैं जो पूर्व समय में जैनधर्म पालती थीं, लेकिन इस समय वैष्णव धर्म का पालन कर रही हैं। और समाज की कमी होने में गच्छों का परस्पर विरोध भी कारणभूत है।
इतिहास, धर्मग्रन्थ और जीवन चरित्रों पर दृष्टि डालने से मालूम होता है कि बड़े-बड़े महात्मा और महापुरुषों ने जो-जो सामाजिक, धार्मिक और व्यावहारिक महत्कार्य किये हैं, वे परस्पर सहानुभूति रखकर ही किये हैं, ईर्ष्या द्वेष बढ़ाकर तो किसी ने नहीं किया। अतएव दोष दृष्टि को छोड़कर सबको गुणप्रेमी बनना चाहिये। क्योंकि गुणानुराग से जो उन्नति हो सकती है वह दूसरे गुणों से नहीं हो सकती।
यदि भिन्न-भिन्न गच्छों की सत्यता या असत्यता पर कभी विचार अथवा लेख की आवश्यकता हो तो उसमें शान्ति या मधुरता के विरुद्ध कार्य करना अनुचित है। जिसके वचन में शान्ति और मधुरता की प्रधानता है उसका वचन दुनिया में सर्वसाधारण मान्य होता है। इसी पर विद्वान 'जेम्सएलन' ने लिखा है कि___'शान्त मनुष्य आत्मसंयम का अभ्यास करके अन्य पुरुषों में अपने को मिला सकता है, और अन्य पुरुष भी उसकी आत्मिक शक्ति के आगे शिर झुकाते हैं, उसकी श्रद्धा से देखते हैं और उनको अपने आप ही भासमान होने लगता है कि वे उससे शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और उस पर विश्वास कर सकते हैं। मनुष्य जितना ही अधिक शान्त होगा उतना ही अधिक वह सफल मनोरथ वाला होगा,
१७४ श्री गुणानुरागकुलक