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तब पण्डित धनपाल ने कहा कि गुणहीनों को 'मनुष्यरूपेण भवन्ति काका: ' मनुष्य आकार से कौने के समान जानना चाहिये । प्रतिवादी ने फिर काक का भी पक्ष लेकर कहा किजानाति तत्क्षणात् ।
प्रियं दूरगतं गेहे प्राप्तं
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न विश्वसिति कञ्चापि, काले चापल्यकारकः || ८ ||
भावार्थ-दूर विदेश में गया हुआ प्रिय पुरुष जब घर की ओर आने वाला होता है तो उसे काक शीघ्र जान लेता है, किसी का विश्वास नहीं रखता, और समय पर चपलता धारण करता है उसकी समता मूर्ख कैसे कर सकता है।
किसी युवती ने एक वायस (कौआ) को स्वर्णमय पींजरे में रख गृहांगणस्थित वृक्ष पर टाँग रखा था। उसकी सखी ने पूछा कि संसार में मेना, शुक आदि पक्षियों को लीला के लिये लोग रखते हैं किन्तु वायस तो कोई नहीं रखता, नीच पक्षियों से कहीं गृहशोभा हो सकती है ? युवती ने कहा कि
अत्रस्थः सखि ! लक्षयोजनगतस्यापि प्रियस्याऽऽगमे, वेत्त्याख्याति च धिक् शुकादय इसे सर्वे पठन्तः शठाः । वियोगरूपदहनज्वालालेश्चन्दनं,
मत्कान्तस्य
काकस्तेन गुणेन काञ्चनमये व्यापारितः पञ्जरे ।।१।। भावार्थ – सखि ! उन शुकादि सब पक्षियों को धिक्कार है जो केवल मधुर बोलने में ही चतुर हैं। मेरे स्वामी के 'वियोग' रूप अग्नि ज्वाला को शान्त करने में चन्दनवत् यह वायस ठीक है जो यहाँ से लक्षयोजन गये हुए पति के गृहागमन को जानता और कहता है। इसी गुण से यह कांचनमय पिंजर में रक्खा गया है।
तदनन्तर धनपाल पण्डित ने कहा तो गुणहीन को 'मनुष्यरूपेण हि ताम्रचूडा:' ऐसा कहना ठीक होगा। उस पर वादी ताम्रचूड़ का पक्ष लेकर बोला कि आप का कहना ठीक नहीं, क्योंकि ताम्रचूड़ उपदेशक का काम देता है, वह पिछली रात्रि में दो-दो चार-चार घड़ी के अनन्तर अपनी गर्दन को ऊँची कर कहता है कि
'भो लोकाः ! सुकृतोद्यता भवत वो लब्धं भवं मानुषं मोहान्धाः प्रसरत्प्रमादवशतो माऽहार्यमाहार्यताम् । '
१८० श्री गुणानुरागकुलक