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सुलहा अन्नभवम्मिय, तस्स गुणा हुंति नियमेणं । । २७ । ।
शब्दार्थ - (जो ) जो (सुद्धमणो) पवित्र मन होकर (गुणरयणमंडियाणं) गुणरूप रत्नों से सुशोभित पुरुषों का ( बहुमाणं) बहुमान — आदर (करेइ) करता है ( तस्स) उसके (गुणा ) गुण (अनभवम्मि) दूसरे भव में (नियमणं) निश्चय से ( सुलहा ) सुलभ (हुंति) होते हैं।
भावार्थ — जो पुरुष गुणवान पुरुषों का करता है उसे सद्गुण दूसरे भव में नियम से सुगमता से मिलते हैं ।
शुद्ध मन से बहुमान सुलभ होते हैं, अर्थात्
विवेचन - जितनी शोभा सद्गुणों से होती है उतनी बाह्य आभूषण वस्त्र आदि से नहीं हो सकती । यद्यपि संसारगत मनुष्य शरीर शोभा के लिये उत्तम उत्तम प्रकार के रत्न और मुक्ताओं से जड़े हुए हार आदि अलंकार धारण करते हैं और सुन्दर सुन्दर कोट, पतलून (पेंट) आदि पहनते हैं किन्तु उनसे उनकी वास्तविक शोभा उतनी नहीं होती, जितनी की सद्गुणी पुरुषों की होती है । संसार में रत्न सब से अधिक बहुमूल्य होता है, लेकिन गुणरूप रत्न तो उससे भी अधिक महर्ष है, यहाँ तक कि रत्नों का मूल्य तो अंकित हो सकता है परन्तु गुणरूप रत्नों का मूल्य तो अंकित नहीं हो सकता । गुणहीन मनुष्य शोभा के क्षेत्र से बहिष्कृत है, उसे शोभा और मान किसी स्थान पर नहीं प्राप्त होती ।
किसी समय धारानगरी पति भोजनृपति ने अपनी सभा के शृङ्गारभूत और सर्वशास्त्रविचार विचक्षण पाँच सौ पण्डितों से यह प्रश्न पूछा कि - 'संसार में जो गुणहीन पुरुष हैं, उन्हें किस के समान समझना चाहिये ?' तब उनमें से धनपाल पण्डित ने यह कहा कि'येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।१।। '
भावार्थ — जिनमें विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, गुण और धर्म नहीं हैं वे पुरुष मृत्युलोक में इस पृथ्वी पर भारभूत हैं और मनुष्यरूप से मृग के सदृश विचरते हैं। अर्थात् जो लोग संसार में
१७६ श्री गुणानुरागकुलक