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उसे चाहिये कि निरन्तर परोपकार करने में तत्पर रहे। क्योंकि परोपकार करने ही से पुरुष के गुणों का उत्कर्ष होता है। यदि परोपकार सम्यक् प्रकार से किया जाय तो वह धीरता को बढ़ाता है, दीनता को कम करता है, चित्त को उदार बनाता है, उदरंभरित्व को छुड़ाता है, मन में निर्मलता लाता है और प्रभुता को प्रगट करता है। इसके पश्चात् परोपकार करने में तत्पर रहने वाले पुरुष का पराक्रम (वीय) प्रगट होता है, मोह कर्म नष्ट होता है और दूसरे जन्मों में भी वह कम से उत्तरोत्तर अधिकाधिक सुन्दर सन्मार्गों को पाता है। तथा ऊपर चढ़कर फिर कभी नीचे नहीं गिरता है, किसी की याचना की अपेक्षा नहीं करना चाहिये, अर्थात् यह नहीं सोचना चाहिये कि जब कोई हम से आकर पूछेगा, तब हम बतलावेंगे।'
अतएव परोपकार परायण मनुष्य ही धर्म के योग्य बनता है और अनेक सद्गुणों को प्राप्त कर उत्तमता की सीढ़ी पर चढ़ता है, इसलिये हर एक मनुष्य को इसी गुण का अभ्यास करने का प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि उपकार के प्रभाव से भी पुरुष उत्तमदशा को प्राप्त कर सकता है। 'अन्तरवारिषड्वर्ग - परिहारपरायणः । वशीकृतेन्द्रियग्रामो, गृही धर्माय कल्पते । १0।'
भावार्थ-३४, अन्तरङ्ग छ: शत्रुओं का त्याग करने वाला पुरुष धर्म के तथा गुण ग्रहण करने के योग्य होता है, वास्तव में प्रत्येक प्राणिवर्ग के गुणों का नाश करने वाले अन्तरङ्ग शत्रु ही हैं। यदि अन्तरङ्ग शत्रु हृदय से बिलकुल निकाल दिये जायँ, तो हर एक सद्गुण की प्राप्ति सुगमता से हो सकती है। जिस ने अन्तरङ्ग शत्रुओं को पराजित कर दिया उसने सारे संसार को वश में कर लिया ऐसा मान लेना बिलकुल अनुचित नहीं है। काम से दाण्डक्य भोज, क्रोध से करालवैदेह, लोभ से अजविन्डु, मान से रावण तथा दुर्योधन, मद से हैहय तथा अर्जुन और हर्ष से वातापि तथा वृष्णिजंघ आदि को इस संसार मण्डल में अनेक दुःखों का अनुभव करना पड़ा है। अतएव अन्तरङ्ग शत्रुओं का परित्याग करने वाला मनुष्य अपूर्व और अलौकिक योग्यता का पात्र बनकर अपना और दूसरों का सुधार कर सकता है!
श्री गुणानुरागकुलक १५७