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है, और मैं ही उनका कर्ता और उत्तरदाता है, तब उसे उन पर जय प्राप्त करने की आकांक्षा होती है। और किस तरह से उसे सफलता हो सकती है, वह मार्ग भी उसे प्रगट हो जाता है। इस बात का भी उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि मैं कहाँ से आया है, और कहाँ मुझे जाना है। निन्दा में उन्मत्त हुए मनुष्य के लिए कोई मार्ग सरल और निश्चित नहीं है। उनके आगे पीछे बिलकुल अन्धकार ही है। वह क्षणिक सुखों के अन्वेषण में रहता है और समझने और जानने के लिए जरा भी उद्योग नहीं करता। उसका मार्ग अव्यक्त, अनवस्थित, दुःखमय और कंटकमय होता है, उसका हृदय शान्ति से कोशों दूर रहता है।'
संसार में सब कोई स्वयं किये हुए शुभाऽशुभ कर्मों के स्वयं उत्तरदाता हैं ऐसा समझ कर अधमाऽधम पुरुषों की निन्दा और प्रशंसा करने से बिलकुल दूर रहना चाहिए, और नीचे लिखे गुर्जर भाषा के पद्य का मननकर कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाना चाहिये।
मन चन्दाजी! पुष्पसमी रीतराखी जगमां चालवू । । टेर।।
तुं पुष्पसमी दृष्टि करजे, सद्गुण तेनां उर धरजे।
दृढ़ निश्चय धारी ने तरजे।। म.।।१।। जेने दूरथी पण सुवास दिये,
निरखे ते झट चूंटी लिये। दुःख थाय तथापि नहीं हीये।। म.।।२।।
चोले तो तेनो नाश थतो, पण हाथथी वास न दूर जतो।
एवो उत्तम गुण तुं कर छतो।।म.।।३।। हे मन! पुष्पस थई रहेजे, __अवगुण कोई ना न उर लेजे। सर्वस्थले सहुने सुख करजे।।म.।।४।।
श्री गुणानुरागकुलक १६५